सदविप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

सदविप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्यमय लोक से

यहां पुनर्जन्म का अर्थ है -- आध्यात्मिक जन्म होना। देह भान को त्याग कर आत्म स्वरूप में स्थित होना। अत्रि स्मृति ( 141 - 42) में कहा है ---

जन्मना जायते शूद्र: संस्काराद् द्विज उच्यते ।
वेद पाठी भवेद्विप्र: ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: ।।
अर्थात मनुष्य का जन्म शुद्र (अज्ञानी) के रूप में होता है। संस्कार द्वारा वह द्विज होता है। (द्विज का अर्थ है--जिसका दोबारा जन्म हो) स्वाध्याय और शास्त्र पाठ से वह विप्र (विशेष प्रज्ञावान) होता है। ब्रह्म को जानने पर वह ब्राम्हण होता है। शुद्र से ब्राह्मण बनना ही पुनर्जन्म है। मां-बाप के द्वारा प्रत्येक पुत्र शुद्र के रूप में ही संसार में आता है।गुरु के द्वारा दीक्षा संस्कार करने के बाद शिष्य में चमत्कारिक परिवर्तन होता है। वही कालांतर में ब्रह्म ज्ञानी (ब्राह्मण) बनता है। इनका चर्याचर्य ब्रह्मा की तरह हो जाता है।

दीक्षा देते समय ही कुछ शिष्यों में अमूल-चुल परिवर्तन हो जाता है। जिस में परिवर्तन नहीं होता है, उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए। ब्रह्म विद् गुरु उसके हृदय में, त्रिकुटी में सहस्त्रार में अपना मंत्र, दिव्यास्त्र, देवास्त्र आरोपित कर सील कर देता है। साधक जैसे-जैसे साधना के पथ पर विकास करेगा ,वैसे-वैसे क्रमशः बीज रूप में पड़ा मंत्र अंकुरित, पल्लवित पुष्पित होकर फल के रूप में परिणत होगा। अतएव शिष्य को धैर्य रख कर ब्रह्म विद् गुरु से दीक्षा ग्रहण करना चाहिए। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास से मंत्र का जाप एवं ध्यान करना चाहिए। उसका श्रद्धा पूर्वक किया गया--सुमिरण, सत्संग, सेवा एक दिन ब्राह्मण बना देगा। ब्रहदारण्यकोपनिषद में कहां गया है --"अर्थ यह एतद्क्षर्र गार्गि विदित्वास्माल्लोकात प्रैति स ब्राह्मण: । अर्थात जो अक्षर ब्रह्म को जानने के बाद इस संसार से जाता है, वह ब्राम्हण है। इसी से मैं कहता हूं--जो मेरे साथ है, संध्या, सुमिरण, सत्संग सेवा में रहता है, वही ब्राह्मण है।

बाइबल में यीसा मसीह ने कहा था---"जब तक व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, तब तक वह ईश्वर के साम्राज्य का दर्शन नहीं कर सकता।"उनके शिष्य पीटर ने इसे समझाते हुए कहा है---"दुषणीय बीज द्वारा पुनर्जन्म नहीं बल्कि नित्य और स्थाई भगवान के नाम रूपी अदूषणीय पवित्र बीज से पुनर्जन्म होना।"गुरु विशेष प्रक्रिया द्वारा, मंत्र द्वारा, आत्मा का जागरण करता है। तब उसे द्वीज कहते हैं। द्विज का अर्थ--दोबारा जन्म। पक्षी को भी शाब्दिक अर्थ में द्विज कहते हैं। चूंकि पहले अंडा पैदा होता है। उसके बाद अंडे से पक्षी शावक पैदा होता है। फिर पक्षी बनता है सभी अंडे शावक नहीं बनते। ना ही सभी शावक पक्षी बनते हैं। इसी तरह सभी का आध्यात्मिक विकास  समान रूप से नहीं होता।

जिस व्यक्ति को परमात्मा पाने की उत्कट अभिलाषा रहती है। वह ब्रह्म विद् गुरु के सामने समर्पित भाव से सेवा करता है। उस पर गुरु अनुकंपा की वर्षा अवश्य ही होती है। भगवत गीता में अर्जुन जी प्रार्थना करते हैं--"कर्मण्य दोष के कारण मेरा मन विभ्रमित हो गया है। और मैं धर्म के विषय में निर्णय करने में असमर्थ हूं। मै शिष्य के रूप में आपसे निवेदन करता हूं। मुझे शरणागत को उपदेश दीजिए।"अर्जुन जैसे ही शरणागत स्वीकार करते हैं। नाता-रिश्ता भूलकर शिष्यत्व का भाव लाते हैं। श्री कृष्ण तत्क्षण गीता का उपदेश देना प्रारंभ कर देते हैं। उसी क्रम में अपना विराट रूप दिखाते हैं। अर्जुन ततक्षण द्विज बन जाते हैं। विलंब शिष्य की तरफ से होता है। गुरु तो शिष्य की तैयारी की प्रतीक्षा करता है।

शंकराचार्य जी विवेक चूड़ामणि में कहते हैं, कि शिष्य गुरु से प्रार्थना करता है---"स्वामी! मैं संसार सागर में पतित हूं। कृपया इस दुख से मेरा उद्धार कीजिए।"गुरु जैसे ही शिष्य को उचित पात्र के रूप में देखता है, उस में प्रवेश करने लगता है। उतरने लगता है। शिष्य गुरु के रूप में स्वयं को खिलते देखता है। उसको स्वयं का भान भूल जाता है। द्वैत का भाव गिर जाता है। बाहर-भीतर गुरु ही रह जाता है। फिर गुरुत्व स्वत: प्रगट होने लगता है। शिष्य रूपी बीज  वृक्ष बन जाता है। देखते ही देखते उसमें गुरुत्व रूपी पुष्प निकल आते हैं। फल रुपी सहज समाधि प्रकट हो जाती है।

आदि शंकराचार्य सद्गुरु हैं। वे अपने पैरों पर खड़े हैं। उन्हें किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं है। उनका स्वयं का अनुभव है। स्वयं की वाणी है। उनके मुंह से जो भी शब्द  निकलते है, वे वेद वाणी सदृश्य है। ऐसे सद्गुरु से दीक्षा ग्रहण करना अपने आप में चमत्कार है। वे निर्माणषट्कम मैं कहते हैं---

"मनोबुद्धयहंकारीचिन्तानि नाहन न च श्रोत्रजिह्हे न च घणनेत्रंन्दे न च ब्योम भूमिर्न तेजो न वायु श्चिदानन्दरुप: शिवोऽहं शिवो अहं निर्विकल्पो निराकार रूप विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेंद्रियाणाम न चासंगतं नैन मुकिनं भेय श्चिदानन्दरूप: शिवोऽहं  शिवोऽहं ।।"अर्थात--न मैं मन हूं,न बुद्धि,न चित्त हूं, न हीं अहंकार ,न मैं स्रोत हूं, न जिव्हा,न 
 ध्राण ‌हूं ,न नेत्र ,। न मैं ब्योम हूं,न अग्नि हूं, न वायु और न भूमि ही। मैं  चिदानंद स्वरूप हूं, मैं सर्वव्यापी शिव स्वरूप हूं।