साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
???? अलकापुरी????
जितना वृहद् व्यवस्था लौकिक जगत की है। उससे कई गुणा व्यवस्था सूक्ष्म
जगत् की है। जिसे देखकर अनुभव किया जा सकता है। उसका वर्णन न वाणी से किया जा सकता है न ही लेखनी से। इसे मात्र इशारा ही किया जा सकता है। जब साधक कुण्डलिनी जाग्रत कर चुका होता है। वह प्रत्येक चक्रों से गुजर कर अपने अंदर से सूक्ष्म शरीर से निकलने की कला जान लिया होता है। तब उसके लिए यह जगत् एवं सूक्ष्म जगत् एक समान हो जाता है। सारे रहस्यों से पर्दा उठ जाता है। वह दिव्य लोकों का परिभ्रमण आसानी से करता है। उसके लिए कौतूहल समाप्त हो जाता है।
यदि साधक संसार को दांतों से पकड़ता रहेगा तब वह कुछ भी नहीं कर सकता है। न वह माया को उपलब्ध होता है न राम को जब साधक पर गुरु- गोविंद की कृपा होती है तब उसके समस्त सांसारिक आश्रय, पूर्व मान्यताएं, पूर्व मित्रताएं वह छीन लेता है। जिससे साधक चिपके रहता है। जैसे ही सभी बाह्य सांत्वनाएं दूसरों से सभी प्रकार की आशाएं टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। तब साधक बाध्य होकर गुरु गोविंद की तरफ मुड़ता है। जो हमारा एकमात्र नित्य, सच्चा मित्र और सही पथ प्रदर्शक है। यह अति कटु सत्य है। करोड़ों में शायद कोई एक होता है जो सभी कुछ होते हुए भी राजा जनक की तरह मन से विरक्त है। जनक का उदाहरण पेश कर अपने मन को सान्त्वना देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
स्वर्ण को आभूषण बनने एवं देव प्रतिमा के ऊपर विराजने के लिए उसे अग्नि तथा स्वर्णकार के हथौड़े से गुजरना पड़ता है। उसी तरह दुख भक्तों के हृदय में भक्ति भरने एवं उसकी सहज-असहज प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर उन्हें आध्यात्मिक प्रयास की अग्नि में जलाना है।
सच्चे भक्त धन या भौतिक लाभ के लिए भगवान से प्रार्थना नहीं करते हैं। ऐसी प्रार्थनाएं वेश्यावृत्ति की प्रार्थना है। वे तो दुःख निवारण के लिए भी प्रार्थना नहीं करते हैं। वे कष्ट सहन करने की शक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। कुन्ती भागवत में भगवान् से प्रार्थना करती है-
"विपदः सन्तु नः शश्वततः तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।"
अर्थात् हे जगद्गुरु! हम पर सभी ओर से सदा विपत्तियां आएं, क्योंकि उनके कारण तुम्हारा दर्शन होता है, जो संसार चक्र का नाश कर देता है। जब हमें अप्रिय अनुभव होते ही हैं, तो उनका उच्चतर आध्यात्मिक जीवन के लिए उपयोग करना श्रेयस्कर है। कोई भी व्यक्ति जीवन में किसी न किसी प्रकार के दुःख, कष्ट और अपमान से बच नहीं सकता है। तब साधक इसे उच्चतर लक्ष्य का प्रेरक बना लेता है। इसका उपयोग आध्यात्मिक जीवन की सीढ़ियों के रूप में करता है।
यह कतई जरूरी नहीं है कि गुरु अनुकंपा हमारे समस्त दुःखों कष्टों को दूर कर दे। यदि हम पर कृपा है, तो हम जीवन की अग्निमय कठिनाइयों को अपने भीतर की बुराइयों को जलाते हुए सफलतापूर्वक पार कर सकते हैं। इससे हमारी आन्तरिक पवित्रता और शरणागति के भाव की वृद्धि होती है। भगवत् कृपा से हमारी समस्याएं दूर हो, यह आवश्यक नहीं है। लेकिन वह सदा ही भक्त को अद्भुत आन्तरिक स्थिरता और विपदाओं तथा कठिनाईयों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। उसे पवित्रतर बनाती है। उसी की कृपा से भक्त भगवान् के सानिध्य का अनुभव करने में समर्थ होता है। जिससे महानतम् कष्ट में भी आन्तरिक शान्ति बनी रहती है।
सुखान्वेषी तथा गुरु द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों से कतराने वाले लोगों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। वे कभी भी अपना पूर्ण भौतिक, आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाते हैं। गुरु द्वारा की जा रही कृपा का भरपूर लाभ नहीं उठा पाते। समय और सुविधा के अभाव की शिकायत करने के बदले प्राप्त समय और सुविधाओं का पूरा लाभ उठाते हुए शरणागति के भाव से ईश्वर साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
जैसे ही गुरु शिष्य को भौतिक सुख-सुविधा प्रदान करने लगता है। वह उसकी कृपा की उपेक्षा कर देता है। वह स्वयं की शक्ति में अतिविश्वासी होकर, साधना एवं गुरु भक्ति के प्रति लापरवाह हो जाता है। यहां तक कि वे घमण्ड में चूर होकर उद्दण्ड भी हो जाते हैं। अपने साधन से नाममात्र तुच्छ भेंट देकर उस पर एहसान जताने से बाज नहीं आते हैं। स्वार्थी साधकों को स्वार्थ पूर्ति होते ही वह गुरु गोविंद में छिद्रान्वेषण कर अपने को श्रेष्ठ साबित करने लगता है।
सुने हैं एक ऋषि के आश्रम में एक छोटा-सा चूहा था। एक दिन एक बिल्ली उस पर झपटी। ऋषि ने दया करके उसे बिल्ली बना दिया। कुछ दिनों बाद इस बिल्ली पर कुत्ते ने झपटा तब ऋषि बिल्ली की प्रार्थना पर दया वश उसे कुत्ता बना दिया। जंगल में आश्रम था। एक दिन उस पर शेर झपटा तब ऋषि ने उसे शेर बना दिया। वह शेर बनते ही जंगल में उत्पात शुरू कर दिया। जंगली जीवों को नाहक मारने लगा। ऋषि के शिष्यों एवं गायों को भी मारने लगा। एक दिन ऋषि शेर को समझा रहे थे कि बच्चा अनर्थ न करो। अपने शक्ति को परहित में लगावो तब वह ऋषि पर ही मारने के लिए झपटा। ऋषि दुःखी होकर बोले- अच्छा तो तुम अति अहंकारी बन गया, "पुनर्मूषको भवः"। वह पुनः मूषक बन गया। तब से वह पुनः ऋषि को प्रार्थना करता है। ऋषि अब परमात्मा के न्याय के मार्ग में बाधा बनने से इंकार कर दिए।
इस तरह की सैंकड़ों घटनाएं मेरे साथ हुई हैं। कोई रोते आया कि मैं निर्धन हूं। वह धनी हो गया। कोई पुत्र नहीं है-रोते रहा। उसे पुत्र हो गया। किसी को नौकरी नहीं है, उसे नौकरी मिल गई। किसी का व्यापार डूब गया है। उसका व्यापार चल गया। फिर क्या वह मेरे ही पीछे पड़ गया। वे सभी किसी न किसी तरह मेरी निन्दा करते हैं। कुछ तो उसे मूषक शेर की तरह ही हम पर झपटा मार रहे हैं। उनका अहंकार उन्हें स्वतः ले डूबता है। गुरु कृपा को अचानक भगवान वापस ले लेता है। जिससे वे अपने आपको भयानक शून्यता के सामने अकेले ही पाते हैं। अन्त तक वे दुःख भोगने को विवश हो जाते हैं। अब उनका दुःख कोई नहीं सुनता है। उनका यह जीवन उनकी अहंकार में यों ही व्यर्थ चला जाता है।
गुरु दया कर कुछ विशेष साधकों पर धर्म प्रचार हेतु या सेवा हेतु अनुग्रह की वर्षा करता है, जो उन्हें कुछ हद तक पवित्र करती है। वे कुछ मात्रा में एकाग्रता और स्वाधीनता को प्राप्त करने में सफल होते हैं। पर उसके बाद वे अहंकारी हो। अपनी उपलब्धियों को बहुत अधिक एवं गुरु से अपने को श्रेष्ठ समझने लगते हैं। वे गुरु गोविंद के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। वे अपना शिष्य बनाने लगते हैं। अपनी क्र्तृत्व का गुणगान करने लगते हैं। गुरु अनुकंपा पूर्णतः भूल ही जाते हैं। तब अचानक गुरु कृपा वापस ले ली जाती है। अब वे अन्ध कूप में गिर जाते हैं। जहां से कई जन्म बेकार हो जाते हैं। उन्हें नया रास्ता देने में अन्य गुरु असमर्थ हो जाते हैं। भगवान अपनी बहती कृपा से मुंह मोड़ लेता है। चूंकि वही कृपा करके गुरु का हाथ पकड़ाया था। वह साधक अधोगति को प्राप्त होता ही है।
अध्यात्म पथ के साधकों को अपने अहं को विसर्जित करना ही होगा। उन्हें निःस्वार्थी, दयालु और सहिष्णु बनकर गुरु के निर्देशन में अग्रगति करना ही होगा। भौतिक वस्तुओं के बारे में अधिकांश लोग भिखारी हैं। अतः साधक को उदार दाता बनना होगा। अपने मन के प्रति सजगता बनाए रखना होगा। गुरु जिन आशीर्वादों की वृष्टि हम पर कर रहा है, उनसे लाभ उठाने के लिए मन का सतत सजग बने रहना आवश्यक है। कुछ ऐसे कर्म है जिसका नाश दुख के द्वारा ही होता है। अतः जब दुख आए तो हमें कुछ राहत महसूस करना चाहिए। दुख सुख में, जीवन मरण में, गुरु गोविंद ही हमारे अपने है। वह हमारी आत्मा की आत्मा और प्राणों के प्राण हैं। अतः उसके प्रति और अधिक श्रद्धा से शरणागत होना चाहिए।
क्रमशः......