साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
कोई भी आदमी या औरत वृद्ध एवं कुरुप नजर नहीं आ रहा है। सभी आप आप- से सुंदर हैं। सभी युवावस्था को प्राप्त है। कुछ के चेहरे पर उदासी प्रतीत होती है। फिर भी वे उस उदासी के छिपाने का भरपूर प्रयास करते हैं। कुछ ही देर में एक चन्द्र आभा से पूर्ण भवन के सामने हम लोग खड़े थे।
भगवान शंकर को देखते ही उस भवन का द्वार स्वतः खुल गया। यह द्वार बहुत बड़ा एवं सुंदर कारीगरी से युक्त था। उस द्वार पर फूलदार लताएं फैले थे। द्वारपाल झुककर प्रणाम किया। में भगवान शंकर के साथ अंदर गया। देखते हैं कि यह भवन है या पूरा नगर। इसका आदि-अन्त नहीं दिखाई पड़ रहा था। यह दुल्हन की तरह सज-धज कर खड़ा था। कुछ दूर चलने के बाद एक सभागार में प्रवेश किया। यह सभागार श्वेत मखमल-सा निर्मित था। जिसके दीवार से मनोहर प्रकाश निकल रहा था। प्रवेश करते ही हजारों ऋषि जो जटा-जूट थे। दिव्य वस्त्र, आभूषणों से परिपूर्ण थे। खड़े हो गए। भगवान शंकर के जय का उदघोष किए। फिर हमारा स्वागत किए। भगवान शंकर के साथ ही हमें भी उच्चासन पर बैठाए । फूल मालाओं से लाद दिए।
सभी ऋषि किसी भी तरह चालीस से ज्यादा नहीं प्रतीत होते थे। किसी के चेहरे पर सफेद दाढ़ी एवं केश थे तो किसी के चेहरे एवं सिर पर कुछ काले सफेद थे। सभी प्रसन्न थे। तरोताजा थे।
भगवान शंकर ने हमारा परिचय देते हुए कहा- "मेरे प्रिय ऋषिगण ये हैं- स्वामी कृष्णायन जी। जो परम पुरुष के उत्तराधिकारी हैं। सद्गुरु हैं। पृथ्वी पर सद्विप्र समाज की रचना कर रहे हैं। ये कृपा कर आपके पास आपसे मिलने आए हैं। कुछ दिन पहले मैं भी इनके संबंध में कहा था।"
स्वामी जी ! सामने बैठे हुए ऋषि लोमस हैं। वे तेजोमय चेहरे में खड़े होकर अभिवादन किए। इनके बगल में है-मार्कण्डेय। देखिये सबसे दाहिने बैठे हैं, ज आपसे मिल चुके हैं - भगवान परशुराम बाएं बैठे हैं-हमारे रुद्रगण। पीछे बैठे हैं. अश्विनी कुमार। मध्य में हैं—ऋषि च्यवन बहुत देर तक इन ऋषियों से परिचय होता रहा। फिर मैंने पूछा हे लोमश जी
आप अमर हैं। आपका शरीर भी दिव्य है। हमारे समक्ष कुछ ऋषि उदास हैं।
जबकि अन्य का चेहरा खिला है। प्रसन्न है। ऐसा क्यों ? लोमश जी ने कहा- हे स्वामी जी! यह काशी है। भगवान भूतनाथ की नगरी है। यहां पृथ्वी का सैकड़ों वर्ष भी आमोद-प्रमोद एवं सुख-सुविधा क्षण भर में समाप्त हो जाता है। यहां सदैव प्रकाश एवं युवा अवस्था में ही रहती है। जो अपना सुख अर्थात् पुण्य पूरा कर लिए उन्हें नीचे के लोक में जाना है। जिसकी सूचना इन्हें मिल गई है। ये उसी दुःख से दुःखी हैं। जो कुछ दिन ही पहले यहां आए हैं वे अति प्रसन्न हैं। जो अपने पुण्य के मध्यावधि में हैं वे शान्त हैं। लेकिन जैसे कोई व्यक्ति बैंक के जमा रुपये को निकालकर खाता है, जैसे ही प्रबन्धक उसे बताता है कि अब आपका शेष रकम इतना ही है, वैसे ही उस व्यक्ति को सभी सुख सुविधा में रहते हुए भी दुख हो जाता है। यही स्थिति है देवलोक की आप से निवेदन है कि ऐसा उक्ति बताए कि हम लोग सदैव प्रसन्न रहे। कभी पुण्य क्षय होने का भय नहीं सताए ।
स्वामी जी " हे मेरे आत्मवत भगवान भूतनाथ तथा ऋषिगण आपसे मिलकर मुझे प्रसन्नता हुई एवं दुःख भी हुआ प्रसन्नता इसलिए हुई कि आप वैदिक-पौराणिक ऋषि हैं। भारत के बच्चे-बच्चे आपको श्रद्धा से देखते हैं। आप हमारे शारीरिक रूप से पूर्वज हैं। पूज्य हैं। आप सभी को कोटिशः नमन है। मेरा नमन स्वीकार करें। आप भगवान भूतनाथ के लोक में हजारों वर्षों से सुखपूर्वक रह रहे हैं, दुःख इसलिए हुए जा रहा है कि अपने तपस्या के मद में अहंकार से भर गए हैं। उस परम चेतन पूर्ण परमात्मा को याद नहीं किए। इतना समय बीत गया। इतिहास पुरुष बन गए। पितर बन गए किसी सद्गुरु का अनुगमन नहीं किया। यह भूमि मध्य लोक है। इसके ऊपर भी तीन लोक हैं। जैसे कोई व्यक्ति साधारण गृह छोड़कर सुंदर घर पकड़ लेता है लेकिन पकड़ तो बनी रही है। मन में सुख की कामना सदैव वर्तमान है। सुख का अन्तिम सिरा दुःख है ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक और है सुख-दुःख से परे परम पद उस परम पद के तरफ भी हम लोगों को बढ़ना चाहिए।"
एक विशाल वृक्ष है। उस वृक्ष की जड़ ही सत्पुरुष है। इसे ही परम पुरुष, परम पिता कहते हैं। इनका तप ही परब्रह्म या अक्षर पुरुष है। इसी से ब्रह्म पुरुष अर्थात् काल भगवान निकले हैं। ये ही अवतार लेते हैं। इनके शाखा है ब्रह्मा, विष्णु महेश अन्य छोटी-छोटी डालियां ही विभिन्न देवी-देवता हैं। पत्ता ही संसार है। जैसे कोई एक-एक पत्ता या डाली का पूजा और उस पर खाद-पानी दे तब या तो वह पत्ता या डाली प्रसन्न हो एवं झुककर उसे आशीर्वाद दे । परंतु वह स्थायी नहीं है। चतुर व्यक्ति उस वृक्ष के जड़ में पानी देता है। जिससे पूरा वृक्ष हो हरा-भरा रहता है। वृक्ष समय पर स्वतः फल-फूल भी देता है।
हमारा योग, जाप, कर्मकाण्ड, मंत्र-तंत्र मन का ही विषय है। यह मन हर समय विषयों में फंसा रहता है। चाहे वह विषय किसी तरह का हो। हथकड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की हो। वह तो बंधन ही है। जेल का द्वार चाहे स्वर्णमय हो या लौह हो। वह जेल द्वार ही है। मुक्ति द्वार तो नहीं है।
इन्द्रिय जनित सुख बंधन का कारण है। इन्द्रियों से सूक्ष्म विषय से सूक्ष्म मन है। मन से सूक्ष्म बुद्धि है। बुद्धि से भी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ है माया या प्रकृति इससे सूक्ष्म है- आत्मा आत्मा से सूक्ष्म है परम पिता परमात्मा। यही सबसे परे है। यहाँ परम पुरुष सभी देवों, संपूर्ण चराचर भूतों में रहता हुआ भी, माया के पर्दे में छिपा रहता है। शरीराभिमानियों, तपस्वियों, कर्मकाण्डियों को दृश्य नहीं होता है। वे अपने अहं के अंधकार से घिरे तथा अपने देवता रूपी प्रदत्त सुख में भूले रहते हैं। उनका भटकाव अनन्त जन्मों तक रहता है। प्राणी मात्र आत्मा के दर्शन के अधिकारी नहीं है। चूंकि ये अपने पाप कर्मों में आसक्त है। इनका मन अशान्त है। चित्त विक्षेपों से व्याकुल है। अतएव साधारण मनुष्य सहित सभी देवी-देवता उस काल भगवान की चटनी हैं।
ये सभी ब्रह्म (काल) की खेती है। प्रतिदिन एक लक्ष जीवों का आहार करते हैं।
पुराण वेता, वेद वेता, विद्वान, आत्म वेता हो सकता है, यह कतई जरूरी नहीं है। ग्रंथों के रटने से, योग तप करने से आत्मा को प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मा द्वारा ही आत्मा को जाना जा सकता है। जैसे एक जलते हुए दीपक से ही दूसरा दीपक जलाया जा सकता है। शरीराभिमान त्याग कर ही आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है तथाकथित सम्प्रदाय। मजहब, आत्मा के विरुद्ध है।"????
क्रमशः.....