साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
"भगवान शंकर के त्रिशूल पर काशी"
मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। अपने कक्षा में अक्सर सुना करता था की काशी भगवान के त्रिशूल पर है। ऐसा कह कर वे आपस में हंसते थे एवं अपने को पूर्वजों से ज्यादा बुद्धिमता का परिचय देकर वेद- पुराणों का परिहास उड़ाते थे। देखो न काशी पृथ्वी से अलग है। पूरे पृथ्वी से कट गई है। उसके चारों तरफ पाताल की खाई है। वह टापू है। सारे पुराण कार भी क्या-क्या कहानियां लिख मारते हैं। जिसका समर्थन विज्ञान का शिक्षक भी करते थे। मेरे मन-मस्तिष्क में भी बराबर यह प्रश्न उठता था। फिर अज्ञात शक्ति कहती थी यह प्रश्न आपका नहीं है। अतएव उत्तर की अपेक्षा भी न करें।
"प्रसाद क्या है?"
अंतर से ही उत्तर आता विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। परंतु यहां तो हमें पदार्थों का ज्ञान मिलता है। 5/11/2 में भाग देने के बाद जो कटता नहीं है, वह शेष प्रसाद कहलाते हैं। शेष अर्थात जो अविभाज्य है। जो बचता है, उसे ऊपर लिखते हैं। काटे गए अंश को बायें लिखते हैं। जिससे भाग देते हैं---उसे नीचे स्थान देते हैं। जो अविभाज्य है, वही श्रेष्ठ है। उसी का ज्ञान विज्ञान है।
आत्मा ही शेष है। वही अविभाज्य है। उसी का ज्ञान विज्ञान है। परम ज्ञान हैं। उसका ज्ञान होते ही सभी का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
जब हम रक्त या किसी भी चीज का स्लाइड बनाते हैं तब उसका अवलोकन माइक्रोस्कोपिक लेंस से करते हैं। इन आंखों से कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। परंतु उस लेंस के लगते ही यही आंखें उसे देख लेती है। एक्सरे करने के बाद फिल्म इन्हीं आंखों से देख लेते हैं। उसी तरह हम जैसे ही सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, आत्म शरीर ग्रहण करते हैं, वैसे ही उस जगत को देखने एवं उससे बातें करने में सक्षम हो जाते हैं। अतः अपने पूर्व के मूर्खता पर हंसी आने लगती है।
हमारा शरीर ही वृहद प्रयोगशाला है। इसमें प्रवेश करने के लिए किसी भी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। मात्र गुरु अनुकंपा की जरूरत है। जिसके लिए हमें श्रद्धा की पात्रता चाहिए।
इस पृथ्वी पर कुछ स्थान ऐसे हैं जो व्यापक भू-हीनता और चतुर्थ आयाम से प्रभावित होने के कारण वह अभी तक अगम्य, अगोचर, दृष्टिगोचरता के कारण रहस्यमयी बनी हुई है। यही उसकी गरिमा भी है।
भू-हीनता और चतुर्थ आयाम का अनुभव किया जा सकता है। उस लोक में प्रवेश कर उसका रहस्य समझा जा सकता है। मैं स्वयं कई बार प्रवेश किया। नजदीक से देखा समझा, फिर उस दृश्य को मानस- पटल पर उतारना अत्यंत कठिन हो रहा है। जैसे मीठे या नमकीन के संबंध में व्याख्या करना कठिन है। उससे भी कठिन है उस लोक की व्याख्या करना। वशिष्ट जी भगवान राम से योग वशिष्ठ में उसी लोक की व्याख्या लीला के माध्यम से कर रहे हैं। लीला अपने पति को खोजने हेतु विभिन्न पात्रों का सहारा लिए हैं। अन्यथा उसे समझना एवं समझाना दोनों अत्यंत दुरुह हो जाता है।
मैं भी आंखों देखा सत्य आपके सामने रखने की कोशिश करता हूं। आप पूर्णरूपेण संतुष्ट तभी हो सकते हैं, जब उन लोकों की यात्रा करें। जैसे किसी विश्वविद्यालय के शिक्षक से गुड़ के संबंध में पूछेंगे तो वह ईख से लेकर चीनी तक का दर्शन एवं स्वाद के संबंध में तर्कपूर्ण व्याख्या महीनों दे सकता है। जो आपको करण प्रिय भी लगेगा। यदि आप देहात में जाकर एक गंवई (ग्रामीण) से गुड़ के संबंध में पूछेंगे तो वह चुपचाप घर के अंदर जाएगा एवं गुड़ लाकर आपके हाथ पर रख देगा। आप स्वयं उसे देख ले, चख लें। अनुभव कर ले। अब आपसे पूछा जाए कि गुड़ क्या है? तब आप भी व्याख्या करने में असमर्थ हो जाएंगे। व्याख्या उनके पास है, जिनके पास आपका अनुभव नहीं है। जिनके पास अपना अनुभव है, उनके पास व्याख्या नहीं है।
कुछ शिष्यों के आग्रह को टाल नहीं सका। मैं उसको बताने की चेष्टा कर रहा हूं। राम को बताए तब राम ने संसार का कितना महान कार्य किया। आप भी उस महान कार्य के लिए तैयार हो जाएं। जिससे मैं भी आपको उस लोक की यात्रा करा सकूं।
वायुमंडल में कुछ स्थान ऐसे हैं जहां वायु शून्यता रहती है। उसी तरह धरती पर भी कुछ ऐसे ही स्थान है, जो भूहीन है। ऐसे वायु शून्यता और भूहीनता वाले स्थान चतुर्थ आयाम से प्रभावी होते हैं। ऐसे प्रभावी स्थान देश, काल निमित्त से परे होते हैं। उनमें कोई भी वस्तु या प्राणी जाने, अनजाने में चला गया, तो तीन आयाम वाले इस जगत की दृष्टि में उसकी सत्ता अदृश्य अथवा लुप्त हो जाती है लेकिन वहां उसका अस्तित्व बना रहता है।
तीन आयाम वाले संसार की ही वस्तु देश, काल और निमित्त से बंधी हुई है। प्रत्येक देश वक्र है। यदि कोई वस्तु या प्राणी धरती शून्यता के प्रभावी क्षेत्र में पहुंच गया, तो उसकी वक्रता स्वयं अपने आप टूट जाती है। वह वस्तु या वह प्राणी अनजाने में चतुर्थ आयाम के संसार में चला जाता है। उस प्राणी को जरा-सा भी पता नहीं चलता है कि वह ऐसे विचित्र और अद्भुत संसार के रहस्यमय वातावरण में पहुंच गया है। जहां की काल का प्रभाव नगण्य है। जहां मन की, प्राण की और विचार की शक्ति एक विशेष सीमा तक बढ़ जाती है। इतना ही नहीं जीवनशक्ति, शारीरिक क्षमता, मानसिक चेतना में भी आशातीत वृद्धि हो जाती है। वह अपने को हमेशा प्रफुल्ल और तरोताजा अनुभव करता है। उसमें सदा नवीनता बनी रहती है। यहां आयु भी स्थिर हो जाती है।
यदि वह प्राणी उसी स्थान से बाहर आता है तब उस बढ़ी हुई आयु का प्रभाव तत्काल उस पर पड़ सकता है। उसकी जीवन की शक्ति क्षीण हो सकती है।
ऐसे ही स्थान में काशी, संग्रीला, अलकापुरी, त्रिविष्टक, कैलाशपुरी, लंका इत्यादि स्थान है। जो आपके चर्मचक्षु से ओझल है। इन स्थानों के योगी पुरुष कालजयी और आकाशचारी है। प्रत्यक्ष में अपनी आयु युवावस्था में ही रखते हैं। इनमें सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने पांचों शरीर में अलग-अलग निवास करते हैं। वे अपने भौतिक शरीर हमेशा बीस-पच्चीस वर्ष के युवक के समान ही रखते हैं।
क्रमशः.....