साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
द्रोण की व्यथा
मैं एवं मेरी बहन जन्म के साथ दोना (पत्तों में) में ढक कर एक वृक्ष के नीचे रख दिया गया था। क्या दोष था हमारा ? जो बालक इस धरती पर आते ही मौत के मुंह में फेंक दिया गया। जिस मां ने जन्म दिया, उसने मुझे अपना स्तनपान भी पाप समझा। पृथ्वी पर आते ही उपेक्षा झेलने लगा। भाग्य थपेड़े देता रहा। जैसे-जैसे बड़ा हुआ, अंतर्मन धधकता रहा। मां का चुम्बन, पिता के आलिंगन से वंचित रहा। राजा के अनाथ- गृह में पाला-पोसा गया। परंतु अंतर्मन में द्वेष, घृणा का बीज तो पड़ ही गया था। वह समय के साथ बढ़ता रहा। जिसमें समय-समय पर विष फल भी लगा। परंतु वह विष फल भी मुझे ही खाना पड़ेगा यह कभी नहीं सोचा था।
राजा की अनुकंपा पर बड़ा हुआ राज्याधिकारी बन नहीं सकता था। अतएव आचार्य बनने को विवश था कृपा भी आचार्य बने। मैं अग्निवेश को गुरु धारण किया। अंतर्मन में द्वंद्व था। विषमता थी, घृणा थी। अतएव गुरु में भी दोष देखने लगा। गुरुनिंदा करना मेरा स्वभाव हो गया। जिसका परिणाम था-गुरु का श्राप । गुरुगृह से निकाला जाना। क्या दुत्कार पाने के लिए ही इस पृथ्वी पर मैं आया हूँ ? यह अंतर्मन में कौंधता रहा। परंतु मेरी पीड़ा कौन सुन सकता है? आचार्य बना- लेकिन धनुविद्या का ब्राह्मण धर्म नहीं स्वीकार किया। न ही ब्राह्मण वर्ण हमें स्वीकार किया। अतएव मेरी शादी भी मेरे ही सदृश्य व्यक्त पुत्री कृपी से हुआ। उसके अंतर्मन में भी वही वेदना थी। जो हमारे साथ थी।
समय के प्रवाह के साथ हम पुत्र भी हुआ। उसका नामकरण अपने ही नाम पर द्रोणी रखा। कालान्तर में उसका नाम अपने पौरुष बल पर रखा गया- अश्वतथामा। मेरा बचपन, युवावस्था, दुःख पूर्ण बीता है। अतएव पुत्र का भविष्य उज्ज्वल देखना चाहता था। वह अपने शैशव काल में ही दूध के लिए तड़पने लगा। मैं दूध कहां से लाता चूंकि पुरोहित वर्ग हमें हेय दृष्टि से देखता था। अतएव न कोई मुझे दान देता। न मैं लेने का अधिकारी था। बहुत सोच-समझकर अपने गुरुकुल के मित्र राजा द्रुपद के पास गया। परिस्थितिवश राजा एक कंगाल को पहचानने से इनकार कर दिया। मैं अपने पुत्र के जीवन के लिए एक गाय की मांग किया। परंतु दरबारी ब्राह्मण वर्ग ने इसका विरोध किया। यह अज्ञात कुल खानदान व्यक्ति दान का अधिकारी नहीं है। जिससे राजा ने मुझे बाहर निकलवा दिया। यह वेदना मेरे लिए असह्य हो गई। यह स्थिति मेरे लिए पुत्र मोह बन गया। जो पूरे जीवन मुझसे नहीं छूट सका। दूध हेतु गाय की खोज में निकला। कौन मुझे देगा दान? यह प्रश्न कौंधता रहा। तब निर्णय किया कि किसी राजदरबार में नौकरी खोजी जाए। इसी खोज में हस्तिनापुर आ गया। जहां भीष्म पितामह की पारखी आंखों ने तत्क्षण मुझे परख लिया। मुझे अपनी शर्तों पर राजकुल के आचार्य पद पर नियुक्त कर दिए। मेरे लिए उस समय यह पद अति गरिमामय था। इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकता था। मैं खुशी-खुशी भीष्म पितामह से शपथ ले लिया कि भविष्य में भी 'राजपुत्रों' के सिवा दूसरों को शिक्षा स्वयं नहीं दूंगा। मैं स्वयं बंधता गया।
राजसुख मिला। राज्य सम्मान मिला। मेरे साले कृपाचार्य का सानिध्य मिला। पद-प्रतिष्ठा का गौरव मिला। पुत्र मोह की विष बेल भी सिंचित हुआ। वह भी अपनी गति से बढ़ने लगी। अहंकार में वृद्धि हुई। पाण्डव- कौरव मेरे शिष्य हुए। अर्जुन जैसा शिष्य पाकर मैं अपने में नहीं था। वह तन-मन-धन से मेरी सेवा करता था। उसकी गुरुभक्ति से मैं अति प्रसन्न था। उसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाने का संकल्प ले लिया। फिर भी पुत्रमोह में अपने पुत्र को छिपकर छिपाकर कुछ अन्य विद्याएं बता देता था। मेरे मन से द्वेष, मोह का विकार निकला नहीं बल्कि बढ़त गया। जिसके चलते भरी सभा में महाराज धृतराष्ट्र की डांट भी सुननी पड़ती। अवसर पाते ही दुर्योधन निंदा कर देता कि मैं अपने पुत्र एवं अर्जुन को छिपकर विशेष विद्याएं देता हूं। फिर भी अपने पुत्र हेतु मुझे नौकरी तो करनी ही थी। अर्जुन ने पूछा, गुरुदेव ! आपको दक्षिणा में क्या दूं? मेरा मोह संघनीभूत हो
गया। मुझे ब्राह्मण वर्ग ब्राह्मण नहीं मानता। क्षत्रिय वर्ग क्षत्रिय भी नहीं मानता। मैं आचार्य हूं। राजा का हुक्म सुनना पड़ता। उसकी डांट सुननी पड़ती। क्यों न अर्जुन से कहूँ कि वह दक्षिणा में हमें राजा द्रुपद को कैद कर सामने लाए। जिससे उसका दल भी निकल जाएगा। उस देश का राजा मेरा पुत्र हो जाएगा। परंतु राजा धृष्टष्ट्र अनुशासनहीनता में हमें दण्डित कर सकते हैं। वे भी पुत्र मोह से पीड़ित हैं। भीष्म पितामह राष्ट्र-मोह से पीड़ित हैं। अतएव अपने पुत्र का दुर्योधन से मित्रता करने का आदेश दिया। जिससे तुम्हारी सुरक्षा होगी।
राजा द्रुपद को बंदी बनाकर मेरे सामने अर्जुन खड़ा कर दिया। मैं उच्चासन पर था। द्रुपद खड़े थे। मेरे अहंकार की तृप्ति हुई। मैंने पूछा- राजन ! तुम्हारे साथ बर्ताव करूं? तुम मुझे एक गाय नहीं दिया था। राजा ने कहा- आप मेरे मित्र हैं। आप ब्राह्मण बनकर दान में एक गाय मांगे थे। सो आपने देखा हमारे राज्य के ब्रह्मणों ने विरोध किया। मैं क्या कर सकता था? आपका शिष्य अर्जुन प्रतिभा- संपन्न है।
मैंने उसे उदारता दिखाते हुए आधा राज्य लेकर अपने पुत्र को राजा बना दिया। आधा द्रुपद को लौटा दिया। मेरा पुत्र अब राजा बन गया। लेकिन कोई भी राजा उसे सम्मान नहीं देता था। मेरे नीति से दुर्योधन उसका मित्र बना उसे सम्मान दिया। जिस सम्मान के मूल्य में मैं, मेरा पुत्र उसके हाथों सदा के लिए बिक गए। न्याय-अन्याय सभी कुछ सत्ता सुख के लोभ में भूल ही गए।
राजा द्रुपद अपने को अपमानित समझने लगा। वह मेरी हत्या के लिए कृतसंकल्प हो गया। भगवान आशुतोष की आराधना कर मेरे हत्या में समर्थ पुत्र धृष्टद्युम्न को तैयार किया। जैसे खाट एक तरफ बुना जाता है। दूसरे तरफ स्वयं बुन जाता है। वही स्थिति मेरे साथ हुई। कालचक्र अपनी गति से गतिमान था। उसकी इच्छा से ही संयोग बनता गया। कर्ण जो गुरु से अभिशप्त था। वह भी दुर्योधन के साथ आ गया। राज-मद-मोह में फंस-अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ बनाने के चक्कर में एकलव्य का गुरु दक्षिणा में अंगूठा ले लिया। मेरे चलते गुरु की परम्परा कलकित हुई। एकलव्य दक्षिणा देकर भी श्रेष्ठ हो गया। मैं लेकर भी घोर ग्लानि, अपमान, लोकोपवाद के दलदल में फंसता गया। भीष्म पितामह सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्ति संपन्न, विद्वान, वृद्ध सभी गुणों से संपन्न थे। परंतु राष्ट्रप्रेम ने उन्हें भी गुरु से अभिशप्त कर दिया। यदि यह कहा जाए कि कालचक्र ने ही सारे गुरु द्रोहियों को कौरव के पक्ष में कर दिया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वह कालचक्र सारे गुरु भक्तों को पांडवों के पक्ष में कर दिया। महाभारत का युद्ध गुरुभक्त एवं गुरुद्रोही के मध्य कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
क्रमशः......