साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सिंह छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????शास्त्रोक्ति साधना????
 व्यक्ति जब गिरता है तब बुद्धू बन जाता है। जब वह ऊपर चढ़ता है तब वह बुद्ध बन जाता है। बुद्धू एवं बुद्ध शब्द लिखने में बहुत अन्तर नहीं है। परंतु दोनों शब्दों में बहुत अन्तर है। बुद्धू का अर्थ है-मूर्ख गधा। बुद्ध का अर्थ है-"मन के पार चला गया व्यक्ति साधना के सर्वोत्कृष्ट सोपान, परमात्मा स्वरूप, सद्गुरु।"


  यही कारण है कि इस पृथ्वी पर बुद्ध पर पत्थर गिरते हैं। इन्हें फांसी दी जाती है। सूली पर चढ़ाया जाता है। विभिन्न प्रकार की कसनियों में कसा जाता है। इन्हें सभी शंका की नजर से देखते हैं। बुद्धओं की पूजा होती है, मजारे पूजे जाते हैं। मुर्दे पर पुष्प चढ़ाए जाते हैं।
    सुने हैं एक बुद्ध पुरुष थे। वे सत्पुरुष का, सत्नाम का उपदेश देते थे। उनका
उपदेश कोई नहीं सुनता। सभी उन्हें मूर्ख कहते। एक स्वार्थी,प्रमादी,कायर, आलसी अपने उदर पूर्ति के चक्कर में उनका शिष्य बन गया। गुरु के उपदेश से उसे कोई मतलब नहीं होता। वह सदैव उदर भरण करने एवं सो जाने के चक्कर में रहता। एक दिन गुरुजी उसे लेकर जंगल की तरफ चल दिए। वृद्धावस्था थी अतएव वे गधे पर चलते थे। जब जंगल के पास पहुंचे, तब शिष्य ने पूछा, "गुरुदेव आगें तो गांव, नगर नहीं है।" गुरु ने कहा, "बच्चा, आगे पहाड़ है। देखो उस पर्वत पर मुझे जाना है।" शिष्य ने कहा, "गुरुदेव ! यह हमारा भाई है। यह थक गया है। आपका भार पर्वत पर नहीं ढो सकता है। ऊपर न इसे (गधा) घास मिलेगी न मुझे खाना। आप कृपया यहां से अकेले यात्रा करें। आप कहते भी हैं कि परमात्मा को नितांत अकेले में पाया जा सकता है। भीड़ से, कर्मकाण्ड से परमात्मा नहीं मिलता है। आप मेरे लिए परमात्मा हैं। आप ऊपर जाएं। हमें एवं हमारे भाई को यहीं छोड़ें। आप ऊपर से आएंगे तब हम यहीं मिलेंगे।"


      गुरूजी ऊपर चले गए। वह व्यक्ति वहीं रुक गया। गधा चरता था। वह कहीं से मांगकर खा लेता एवं सो जाता था। एक दिन गधा किसी कारणवश मर गया। वह उसी के पास बैठकर रोने लगा कि भाई मर गया। गुरुजी को क्या उत्तर देंगे। उसे रोता देखकर कुछ लोग इकट्ठे हो गए। उन्होंने पूछा, "बाबा क्यों रो रहे हैं ?" वह इशारा करता - "गुरुजी, गुरुजी चले गए।" लोग समझे कि यह गधा मर गया। यह इस बाबा का गुरु है। उन्होंने कहा, "आप मत रोइए। हमारे गांव का सेठ धनी है। उसे सूचना देते हैं। वह इनकी समाधि बनवा देगा। सेठजी आए। वे दानी थे। तथाकथित धार्मिक थे। उन्होंने रोते हुए देखकर कहा, कि अभी इनकी समाधि बना देते हैं तथा हमारे व्यापार में फायदा होने पर इनका मंदिर भी बना देंगे। देखते ही देखते समाधि बन गई। वहीं बाबा बैठ गए। अगरबत्तियां जलने लगीं। लोग मनौतियां मानने लगे। लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। कुछ लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होना स्वाभाविक था। अब सेठ का भी व्यापार चल गया।


   वहां भव्य मंदिर बन गया। ट्रस्ट बना दिया गया। ट्रस्ट का अध्यक्ष बाबा बन गया। मंदिर के बाहर बोर्ड लग गया- "गंदर्भ-भगवान का मंदिर"। गंदर्भ भगवान चालीसा लिखा गया। पुजारी नियुक्त हो गए। आरती होने लगी। मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। लोगों की अपार भीड़ जुटने लगी। व्यवस्था हेतु स्वयं-सेवी संगठन भी बन गया। सरकार का भी ध्यान केन्द्रित हुआ। वहां तक सड़क बन गयी। मंत्रीजी आने लगे। पुलिस की व्यवस्था कर दी गई। बाबा के लिए भी बॉडी गार्ड नियुक्त हो गए। मंदिर की आमदनी लाखों रुपये प्रतिमाह हो गया। बाबा की सिद्धि की चर्चा सर्वत्र फैल गई।

   कुछ महीनों के बाद गुरुजी पर्वत से नीचे उतरे। उनका वस्त्र गंदा हो गया। था। जगह-जगह फट भी गया था। आंखों में, चेहरे पर चमक थी। दिव्य विद्या उनमें अवतरित हुई थी। वे किसी को देने को आतुर थे। शरीर थक चुका था। उम्र ढल रही थी। उन्हें चिंता थी— शिष्य की, योग्य शिष्य ।

    उन्हें याद आया कि मैं यही बुद्धू एवं गधा को छोड़ गया था। वे चौंक गए। यह क्या हो गया। यहां तो विशाल भव्य मंदिर बन गया। आगे बढ़े वे पढ़े, 'गदर्भ भगवान का मंदिर। यहां आपकी हर मनोकामना पूर्ण हो सकती है।' वे चिंतित हो गए। लोगों से कहे कि हमें बाबा से मिलावें। संतरियों ने कहा, तुम्हारे जैसा व्यक्ति बाबा से नहीं मिल सकता है। अभी मंत्री जी बाबा से आशीर्वाद ले रहे हैं। गुरु जी ने कहा- एक ही गधा काफी था। यहां तो दो-दो गधे हैं। प्रहरियों ने डांटते हुए कहा तुम भिक्षुक हो जाओ वहां खाना मिलता है, खा लो। तुम्हें बाबा से क्या मतलब ? ज्ञान-धान से क्या रिश्ता ? गुरु जी ने अनुनय विनय किया कि क्षण भर के लिए हमें दर्शन करा दो। उन्होंने कहा, वे संध्या समय टहलने को निकलेंगे यहाँ तुम दूर से दर्शन कर लेना।

      संध्या समय बाबा चकाचक रेशमी वस्त्र में अपने शिष्य समुदाय के साथ टहलने निकले। आगे पीछे सशस्त्र प्रहरी थे। गुरु जी किसी तरह उचक कर चिल्लाए - "अरे बुद्धआ-कहां जा रहा है।" गुरुजी बाबा के कानों में चिर- परिचित शब्द गूंजने लगा। वे मुड़कर देखते हैं। उनके गुरुजी थे जिनके गधा के ऊपर मंदिर खड़ा है। पर यहां तो प्रतिष्ठा का प्रश्न है। कुछ प्रहरी गण उन्हें पकड़ा था। बाबा ने देखा और उदारता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- " अरे भाई यह साधु है। इसे छोड़ दो। कुछ खाने को दो। बहुत दिनों का भूखा होगा। पहाड़ से उतरा होगा। मैं टहलकर आ रहा हूं तब इससे मिलूंगा।"

लोगों ने पूछा - "क्या आप पहाड़ से आए हैं ?" उन्होंने कहा, "हां।"

"क्या आप बहुत दिनों से भूखे हैं ?"

"हां।" अब क्या पूछना था ? सर्वत्र चर्चा फैल गई-बाबा त्रिकालदर्शी हैं। अति उदार हैं।

बाबा टहलकर अपने कक्ष में चले गए। अपने शिष्यों के मध्य सुहृदय एवं त्रिकालज्ञ के रूप में चर्चित थे। उन्होंने करुणा दिखाते हुए कहा- "उस साधु को सम्मान के साथ मेरे कक्ष में भेज दें।" कुछ क्षणों में गुरुजी उनके कक्ष में उपस्थित थे। बाबा दरवाजा बंद कर दिया, गुरुदेव के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर कहा, "गुरुदेव आप कहां से आ गए ?"

गुरुदेव ने पूछा- "अरे बुद्धआ! तुम इतना सिद्ध कैसे हो गया। मैं जानता हूँ कि तुम सात जन्मों में कुछ नहीं कर सकता।"

    बाबा ने हाथ जोड़कर कहा-"गुरुजी! आप ठीक कह रहे हैं। यह खेल मेरा नहीं बल्कि आपके गधे का है। आप चुपचाप चले जाएं। अन्यथा में पहचानने से इनकार कर दूंगा। आपके साथ खाना नहीं मिलता था। आपके गधे के साथ रहने से मेरी पूजा होने लगी। इससे ज्यादा हमें क्या चाहिए।"

     गुरुजी ने कहा- "बुद्धआ ! तुममें एवं मेरे गधे में कोई अन्तर नहीं था न अभी है। मेरे साथ रहने से देवता लोग मिथ्याचार में तुझे भटका दिए हैं। जहां से तुझे गधा का जन्म मिलेगा। चौरासी भ्रमण करेगा। तुझे अनन्त दुःख भोगना पड़ेगा। साथ ही इन सैकड़ों-हजारों लोगों को तुम भटका दिया है। उसका दण्ड भी भोगना होगा। मैं तुम्हारा उद्धारक हूं। अभी भी समय है। इस माया से बाहर निकलो।"
      बुद्धुआ ने कहा--
''गुरुदेव अब हमें मत समझाओ। आप यह लो दक्षिणा, वस्त्र, रुपये। मैं तुम्हें विदाई कर रहा हूं। गुरु जी सब कुछ छोड़ खाली हाथ निकल गए। मन ही मन कह रहे थे। गधा पर गधा सवार हो गया। उस पर उल्लू बैठ गया। अहंकार रूपी पिशाच अपना ग्रास बना ही लिया।"

   सुने कि कुछ ही दिन में उस देश के कोने-कोने में गदर्भ भगवान का मंदिर बन गया। सभी मंदिरों में आशीर्वाद देने हेतु बाबा जाने लगे। उनका पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, चालीसा, पुराण अति जोरों पर था। वही सच हो गया, सच छिप गया।

    यही स्थिति अभी की है। सर्वत्र कर्मकाण्ड, हठयोग, क्रियायोग का बोल- बाला है। विभिन्न देवी देवताओं की पूजा-अर्चना प्रचारित हो रहा है। गायत्री ऋग्वेदीय छंद है। उसमें निर्गुण निराकार परमात्मा की स्तुति है। प्रातः के सूर्य को सविता मानकर प्रणाम है। परंतु आज के लोग उसी तरह प्रत्येक अक्षर पर एक- एक देवी बनाकर पूजा कर रहे हैं। ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी बने बैठे हैं। ये सभी चौरासी लाख योनि में स्वयं जाएंगे तथा अपने शिष्यों को भी डुबोएंगे। इसमें दो राय नहीं है। मैं पुकार कर कह रहा हूं। परंतु मेरा कोई नहीं सुन रहा है। सुनेगा वह का वासी, परम पुरुष को उपलब्ध होगा। एक दिन सभी देवी, देवता उसकी स्तुति करेंगे। देवों में वही पूज्य होगा। यह दुखद घटना है कि इस परम सत्य को कोई नहीं सुन रहा है। क्या इन्हीं संदर्भों में सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं--

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै ।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै ॥                
सांसारिक सुख के पीछे मन पागल हो गया है। वह अपने आसक्ति में देवी, देवता, मानव, दानव सभी को अपनी गिरफ्त में कर लिया है। कबीर साहब कहते हैं यह मन नट के तरह जीव को अपने वश में करके नाना प्रकार के नाच नचाता रहता है। जैसे नट (बाजीगर) बंदर को वश में करके, गांव-गांव नचाता फिरता है। बंदर से भिक्षाटन कराता है, उसी से नट अपना पेट पालता है। जीव ही बंदर है। यह नट (मन) जीव को नचाता रहता है। यह नट (मन) जीव को अनेक कर्मों में फंसाता है और अनेक दुःख दिलाता है कर्म रूपी वादों से पीट-पीटकर अपने वश में रखता है। जीव सबल है। मन के चक्कर में पड़कर दुःखों को भोगता है।

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीउ मन के साथ।
_ नाना नाच नचाय के, राखे अपने हाथ ॥_

    इस सत्य को जिसे मैं कह रहा हूं, कोई भी सम्प्रदायी, मजहबी योगी, जंगम, सेवड़ा, संन्यासी नहीं जानता है। ये सभी रूढ़ियों में, परम्परा में, पाखण्डों में फंसे हैं।????

क्रमशः....