साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेवा छत्तीसगढ़
???? ध्यान में जैसे ही आप एक बार अतीन्द्रिय सत्ता की झलक पा लेते हैं। फिर अधिक चिन्ता की जरूरत नहीं है। वह प्रवाह आपको सही दिशा में यात्रा कराएगा ही। यह भी सत्य है कि सद्गुरु द्वारा दीक्षा प्राप्त करते ही वास्तविक उत्तराधिकारी शिष्य को तत्काल एक क्षण में सत्य का साक्षात्कार होता है। यह दन्तोक्ति में सत्य है। लेकिन आपको पहले कठोर नैतिक आचरण द्वारा उत्तम अधिकारी बनना ही- होगा। तथाकथित अन्धविश्वास, देवी देव का पूजन, कर्मकाण्ड, धार्मिक जीव
का मापदण्ड नहीं सकता है। धर्म नितांत अनुभूति का विषय है। इसमें जीने की कला को अपने में उतारना ही होगा।
तथाकथित सिद्धि. चमत्कार, धर्म का विषय नहीं है। जिससे आप सभी पूर्ण हैं। चमत्कार दिखाना आत्मवेत्ता का लक्षण नहीं है। ये चमत्कार आध्यात्मिक पथ से भ्रष्ट कर देते हैं। जिससे साधक का विनाश हो सकता है। साधक का कुण्डलिनी जागरण और चमत्कार अनुगामिनी है। आत्मज्ञान का बाई प्रोडक्ट है। अपने मनोजगत् का अतिक्रमण कर परम सत्य की तरफ उन्मुख होना ही श्रेष्ठता है। जहां व्यष्टि जीव
समष्टि परमात्मा का संस्पर्श करता है। अपने अनुभूति की सत्यता को गुरु द्वारा ही
जांच कराएं या निम्र तीन प्रकार से इसे प्रमाणित करें- 1. अपनी स्वयं की अनुभूति का पुनः पुनः प्राप्ति द्वारा सत्यापन ।
2. अपनी स्वयं की अनुभूति को गुरु वाक्य के साथ तुलना कर परखें। 3. अपनी अनुभूति को समय के सद्गुरु के कथन से प्रमाणित करें।
यदि इनसे सत्यापि न हो तो इसे आत्मप्रवंचन या देवजनित माया की बहुत बड़ी सम्भावना है। आपकी अनुभूतियां आपके अनियन्त्रित मन की खतरनाक कल्पनाएं बन सकती हैं। जब तक आप देहात्मबोध में हैं, तब तक गुरुमूर्ति के साथ तादात्म्य स्थापित रखें। जब आप मानसिक स्तर पर हो, तब आप अपने विराट मन से गुरु आभा मण्डल के साथ तारतम्य बनाए रखना चाहिए। जब आप आध्यात्मिक स्तर पर आरोहण करें, तब गुरु द्वार से परम पुरुष के साथ एकरस होना चाहिए।
इसी अनुभव के साथ आपका शरीर भी भौतिक (स्थूल) शरीर से मानसिक (सूक्ष्म) से यात्रा करते हुए कारण शरीर से भटकते क्रमशः आत्म शरीर पर पहुंचते हैं। अचेतन मन में अशुभ के बीज पड़े ही रहते हैं। उन्हें निर्मूल नहीं किया जा सकता है। परंतु आध्यात्मिक अनुभूति एवं गुरु अनुकंपा के द्वारा भस्म अवश्य किया जा सकता है।
जब तक वासना का बीज अचेतन मन में विद्यमान है। तब तक आध्यात्मिक अनुभूति स्थायी नहीं हो सकती है। प्रारंभ में आप केवल कुछ झलकें प्राप्त कर सकते हैं। ये प्रकाश की क्षुद्र किरणें कुछ संस्कारों को जो गहरे मन में बैठे हैं, भस्म कर ही देती हैं। इस प्रकार वासनाओं के अधिकांश बीजों के नष्ट होने पर ही आप निर्विकल्प समाधि नामक आध्यात्मिक चेतना की उच्चतम अवस्था की उपलब्धि हो सकती है।
साधक को कभी दूरदर्शन, दूर श्रवण, दूसरे के मन की बातों को जानकर अभिव्यक्त नहीं करनी चाहिए। अन्यथा यह क्षुद्र अभिव्यक्ति उसकी आध्यात्मिक दृष्टि से दिवालिया बना देती है।
अतएव गुरु का अवलम्बन हर क्षण रखना चाहिए। गुरु शिष्य के कान में मंत्र
देता है। सद्गुरु साधक के हृदय में बोलता है। तभी तो कहा गया है-
गतिर्मती प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमत्ययम् ।। अर्थात् सद्गुरु सर्वव्यापी भगवान, अन्तर्यामी परमात्मा हैं जो संसार की गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृद, प्रभव और प्रलय, आधार, समस्त ज्ञान का निधान और अव्यय बीज है।
शिष्य गुरु को गुरुओं के गुरु परमात्मा का एक विग्रह समझता है। जिसके माध्यम से भगवत्कृपा प्रवाहित होती है। वह इसी रूप में उनकी सेवा तथा उपासना करता है तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है।????
क्रमशः.......