साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

उत्तरायण

मैं उत्तरायण की यात्रा पर निकल गया। रास्ते में विभिन्न प्रकार के दृश्य दृष्टिगोचर होते रहे। छोटे-छोटे अन्य चक्र (स्टेशन) भी दिखाई पड़े। परंतु मेरी गाड़ी वहां नहीं रुकी। कुछ संत-महात्मा अधिक चक्रों का भी वर्णन किए हैं। ऐसा समझना चाहिए कि वह भी सत्य कहते हैं। झूठ की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है। वे धीरे-धीरे चल रहे हैं या पैसेंजर ट्रेन पर सवार हैं। पैसेंजर गाड़ी छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती चलती है। परंतु राजधानी तो प्रमुखतम  एवं आवश्यक स्टेशनों पर ही रुकेगी। आप कैसी गाड़ी पर सवार हैं--यह आपके श्रद्धा-प्रेम है भक्ति के साथ-साथ गुरु अनुकंपा पर निर्भर करता है।

गुरु तो विशेष परिस्थिति में विशेष साधक को हवाई जहाज पर बैठा कर सीधे गंतव्य स्थान पर भी उतार सकता है। रास्ते के सारे मार्ग एवं स्टेशन देखते रह जाएंगे की इसकी गाड़ी इससेे होकर गुजरेगी। हमारे स्टेशन पर रुकेगी। यात्री यहां विश्राम करेगा। अतएव चक्रों की संख्या ज्यादा बताकर अपने को ज्यादा चतुर समझना दूसरों को मूर्ख समझना कतई उचित नहीं है।

पंचम चक्र है विशुद्ध। यह 16 दल कमल है। यही 16 स्वर उत्पन्न होते हैं। यहां 16 कमल दल अर्थात 16 लोक है। जिसके मध्य में भारती देवी है। जो यहीं से स्वर और व्यंजनों को भरती है। अर्थात पहले 36 व्यंजन जो विभिन्न लोकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 16 स्वर जो 16 लोको का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस तरह 52 लोक हुए, जिसका नियंत्रण यहीं से होता है।

यही अक्षरधाम है। कुछ लोग इसके एक स्वर् अ से अपने को अभिव्यक्त करते हैं। कुछ लोग अक्षर अर्थात जिसका विनाश न हो ऐसा कहते हैं। दोनों अपने स्थान पर सत्य है। कुछ भक्त इसे ही पुरुषोत्तम धाम कहते हैं।

इसके देवता श्वेतांबरी है। चूंकि यहां से शुभ्र लोक प्रारंभ होता है। क्षर लोक के लिए अक्षर लोक अति महान है। प्रत्येक दल से चार-चार विद्याए  उत्पन्न होती है। इस तरह 64 कला विद्या का क्षेत्र यही है। यहां भी मैं मानसिक पूजा किया। देवी प्रसन्न मुद्रा में आशीर्वाद दी तथा पूछी तुम्हें क्या चाहिए तुम तो सदैव मेरे दरबार में आते रहते हो। मैंने नम्रतापूर्वक कहा--मां! अपना देवदूत हमें प्रदान करो जो आपके लोको का परिभ्रमण करा सके। ऐसा ही होगा।एक सूर्य सा प्रकाशित व्यक्ति देवी के सामने झुक कर नमन किया। देवी हमारी तरफ इशारा कर दी। मैं उस देवदूत के साथ चल दिया। उसके अंग प्रत्यंग से प्रकाश निकल रहा था। जैसे उसका शरीर पारदर्शी हो। मैंने निवेदन पूर्वक पूछा--प्रभु! आपको ऐसा शरीर कैसे मिला है? वे मुस्कुराते हुए बोले--स्वामी जी! आपका भी शरीर ऐसा ही है। यहां पांचवां शरीर अर्थात आत्मा शरीर प्राप्त होता है। इस शरीर के ऊपर कई  मेखले चढ़ जाते हैं, तब कहीं कारण शरीर सूक्ष्म शरीर होते हुए स्थूल शरीर में मानव दृश्य मान होता है। जिससे उसका वास्तविक स्वरूप ही खो जाता है।

इस शरीर में द्वैत का भान गिर जाता है। व्यक्ति अपने विचारों का मालिक बन जाता है। साधक अपनी इच्छा, भावना के अनुरूप यहां शरीर धारण कर लेता है। आत्मशरीर में सदा प्रसन्नता बनी रहती है। जरा-मरण से दूर सदैव युवावस्था बनी रहती है। स्त्री-पुरुष का भान गिर जाता है। इस शरीर की संभावनाएं अनंत है। मैं उस देवदूत के साथ कुछ दिनों तक भ्रमण करते रहा। उनसे बातें होती रही। मैं समय का भान भूल ही गया था। तभी देवदूत ने कहा, स्वामी जी यहां तो जन्म -जन्म घुमा जा सकता है। हजारों वर्षों तक निवास किया जा सकता है। इस लोक के विभिन्न भागों की यात्राएं फिर कभी होगी। संभवतः आपको आगे की यात्रा करनी है। अतएव आप इस रास्ते का अवलंबन ले। यह प्रकाश से युक्त राज्य पथ हैं। दाएं-बाएं मुड़ने पर खतरा हो सकता है। रास्ता भटक जाने पर अन्य लोको की यात्रा हो सकती है। आप अपने संकल्पों के क्षेत्र में जाने से भटक सकते हैं।

मैं नम्रता पूर्वक उन्हें भी दंड प्रणाम कर के ऊपर निकल गया। चूंकि संकल्प पहले ही ले चुका था। अतएव उसी के अनुसार मेरी यात्रा निर्धारित हो गई। आज्ञा-चक्र पर पहुंच गया। यहां दो दल कमल है। यहां अनंत सूर्य का प्रकाश एक साथ है। यही आत्मा का निवास है। यहीं से ओंकार की प्रणव ध्वनि हर समय गूंजती रहती है। साधक यहां देख सकता है। अनुभव कर सकता है। यहां से वरणातीत हो जाता है। योगी लोग इसे ही ह्रदय कहते हैं। यही त्रिवेणी संगम है। जिसमें गोता लगाते ही जन्म जन्म का पाप भस्म हो जाता है। यहीं से त्रिनेत्र भी खुलता है। मैं भी गोता लगाया। यहां अस्मिता का भान समाप्त हो जाता है। यहां ब्रह्म शरीर मिलता है। यहां "स्व"का भान गिर जाता है।'सर्व'का भान हो जाता है। यहां साधक अपनी इच्छा अनुसार स्वतंत्रता पूर्वक शरीर छोड़ सकता है। ग्रहण भी कर सकता है। वह आनंद में रहता है।