साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ज़ी अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
यह दृश्य मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ गया। दूसरे दिन मैं गुफा में बैठा था। मेरे सामने कृष्ण की प्रतिमा टंगी है। मैंने उन पर त्राटक किया। मन ही मन प्रश्न किया,प्रभु आपके काले होने एवं नील वर्ण में बदलने का क्या रहस्य है? कृष्ण शब्द का अर्थ ही काला होता है। देख रहा हूं कि वह प्रतिमा एकाएक काली हो गई। मैं अवाक था। बगल में टेबल लैंप था। उसे जला दिया। सचमुच कृष्ण की प्रतिमा बिल्कुल काली थी। परंतु चेहरे का हाव-भाव शांति पूर्वक ही था। एकाएक देखता हूं कि गुफा के रोशनदान से तीव्र (तेज) रोशनी प्रवेश कर गई।गुफा में वह रोशनी अति सुंदरी के रूप में बदल गई। इस तरह की सुंदरता तो मैं कभी जीवन में देखा ही नहीं था। लंबे-लंबे केश, उन्नत तेजोमय ललाट, एक-एक अंग ब्रह्मा ने जैसे स्वयं तराशा हो। रूप में वासना का लेश मात्र नाम नहीं। अजीब-सा प्रेम, स्नेह-लावण्य था। वह कृष्ण के प्रतिमा के पैर तले खड़ी हो गई। धीरे-धीरे वह कृष्ण के पैर में प्रवेश करने लगी। जैसे-जैसे वह प्रकाश स्वरूप प्रवेश कर रही थी, वैसे-वैसे कृष्ण का शरीर नीलवर्ण होता जा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि एक्सरे फिल्म चल रहा है। कुछ ही क्षण में नारी मूर्ति गायब हो गई। नीलवर्ण कृष्ण मुस्कुरा रहे थे। यह दृश्य क्या था? इसे कौन मानेगा? तर्क-वितर्क करने वाले लोग इसे मन का वह भी कह सकते हैं। खैर यह सब मेरा निजी अनुभव है। इन्हीं नेत्रों के सामने का खेल है।
कृष्ण के पैरों से राधा प्रवेश की है। क के नीचे ही र(कृ) लगा है। राधा प्रेम की प्रतीक है। राधा को उलट दे तो धारा हो जाएगा। प्रेम की धारा ही राधा है। कृष्ण के होंठ पर बांसुरी है। होंठ प्रेम का प्रतीक है। बांसुरी होंठ का विस्तार है। कंस का न(0) नकारात्मकता, राधा का र आने से समाप्त हो गया। श शासन प्रतीक था। कठोर शासन, अन्यायी शासन, वह श--ष् (आधा ष्) में बदल गया। राधा का धा ण में परिवर्तित हो गया। कंस समाप्त हो गया। कृष्ण आ गया। वही कृष्ण राधा कृष्ण का युग्म रूप है। पवित्र-प्रेम ब्रह्मानंद का प्रतीक है। वही लक्ष्मी नारायण का प्रतीक है। जहां कोई वासना नहीं, चाह नहीं। श्वेताश्वरोपनिषद 4/3 मैं कहता है------
" त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी त्वं जीर्णो दण्डेन वश्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख: ।"अर्थात"तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार और कुमारी भी हो, तुम दंड के सहारे चल रहे वृद्ध हो, तुम्हीं ने ये सारे रूप धारण किए हैं।"
उपनिषद् के ऋषि द्रष्टा थे। वे सभी कुछ अपनी आंखों से देखे थे। अनुभव किए थे। तब वे जगहित में लेखनी उठाए।जिससे सभी जन उनके आंखों से उस सत्य को साकार कर सके। मेरी भी अवधारणा ऐसी ही है।
ऊपर की यात्रा पर निकला।भगवान विष्णु ने प्रेम भरे शब्दों में आदेशात्मक सुझाव दिया-तुम मेरा वाहन गरुड़ ले लो। उससे तुम्हारी यात्रा आसान हो जाएगी। मैंने उनका पैर पकड़कर मना किया। उन्होंने कहा, अच्छा ठीक है। तुम्हें जरूरत पड़ते ही गरुड़ स्वयं उपस्थित हो जाएंगे। गरुड़ जी भी स्वीकार में सिर हिलाए। मैं साष्टांग प्रणाम कर ऊपर के लोग के लिए चल दिया।
यह लोग था-भगवान शंकर का। द्वादश दल कमल व हृदय चक्र जिसे अनाहद चक्र भी कहते हैं। दरवाजे को प्रणाम किया। तुरंत विशाल द्वार खुल गया। वहां विशाल शुभ्र ज्योतिर्लिंग देखा। जिससे प्रकाश से पूरा लोक प्रकाशित हो रहा था। उससे ध्वनि भी निकल रही थी। मैं साष्टांग प्रणाम कर पूजा हेतु बैठ गया। ध्यान से देखने पर श्वेत वर्ण नंदी भी दिखाई दिए। उस शिवलिंग के एक तरफ भगवान शंकर दूसरी तरफ मां पार्वती ध्यान में बैठे थे।"ॐ"का उच्चारण अनवरत हो रहा था। ॐ शिव के पंचाक्षर मंत्र का उच्चारण भी स्पष्ट हो रहा था। अति शांति, निरवता , ध्यान-समाधि का संगम था। मुझे अब समझ में आ गया सत्यम शिवम सुंदरम का रहस्य। इसी तो देखा जा सकता है। जाना जा सकता है। इसमें डूबा जा सकता है। इसकी व्याख्या कैसे की जाए। जो विद्वान व्याख्या किए हैं, वह तो तुच्छ मालूम होती है। इस विराट के सामने अति तुच्छ प्रतीत होती है। मैं घंटों उसी में डूबता रहा। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं यहां युगों से बैठा हूं। यही मेरा भी निवास है। इस स्थान से मेरा पुराना संबंध है।
और आवाज हुई। जैसे एक साथ मृदंग, ढोल, झाल, नगाड़े, शंख, घंटियां बज उठी। चारों तरफ मधुर-मोहक प्रकाश के साथ विभिन्न प्रकार के बाजे बज रहे थे। भगवान शंकर तांडव करने लगे। मां पार्वती ललित नृत्य। मैं भी उसी में सम्मिलित हो गया। भोले बाबा के सानिध्य में आते ही तांडव होने लगता। मां के सानिध्य में आते ही ललित नृत्य करने लगी। (शिव कीर्तन) होने लगता है। मैं उस नृत्य में सभी कुछ भूल गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूरी प्रकृति ही नृत्य कर रही है। पूरी प्रकृति का वास्तविक रूप कीर्तन ही है। जहां शरीर का भान भूल जाता है। शरीर स्वयं ही क्रियाशील हो जाता है। अस्तित्व गत आत्मा ही सत्य है जो शिव के सानिध्य में जाकर अव्यक्त सुंदर दृष्टिगोचर होती है। उसका ऊपरी आवरण, वासना साफ हो जाती है। सर्वत्र सत्यम शिवम सुंदरम स्वत: दृष्टिगोचर होने लगता है। यहां न कोई बड़ा न कोई छोटा मालूम होता है। सभी शिव स्वरूप सत्यात्मा ही मालूम होते हैं। जो अति सुंदर है। जिसका स्वभाव ही आनंद है। बहुत देर तक यह दृश्य चलते रहा। शिवलोक का पत्ता-पत्ता कीर्तन में मस्त था। अहो भाव से भरा है। मैं भी उसी में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठा था।