साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
देवोदासुवाय
एक दिन प्रातः काल मैं पूजा से उठा ही था कि एक याचक मेरे सामने आकर 'भिक्षां देहि' कहा। मैं अपने स्वभाववश पूछा -"हे भिक्षुवर आपको क्या चाहिए।" वह भिक्षुक बोला कि 'तुम क्या दे सकते हो?' मैंने कहा---"आपको जो चाहिए वही मैं दान में प्रदान करूंगा।" भिक्षुक बोला--"जरा गंभीरता से सोच लो राजन! मैं विप्र भिक्षुक अपने आवश्यकतानुसार ही मांग करूंगा। कहीं तुम न दे सको तो तुम धर्म संकट में फंस जाओगे। मेरा क्या--मैं किसी और के दरवाजे पर आवाज लगा लूंगा।" मैंने प्रतिउत्तर दिया--"ब्राह्मण मांग लो। जो भी मांगना चाहो।" तब वह ब्राम्हण भिक्षुक ने कहा--"राजन! यदि तुम लोग प्रसन्न हो तो हमें अपनी काशी नगरी ही प्रदान कर दो। यह मुझे बहुत पसंद है।"
मैंने प्रणाम कर कहा--विप्र! तुम साधारण भिक्षुक नहीं हो। कृपया तुम अपना परिचय बताओ। क्या तुम अपनी वाणी से पीछे हटना चाहते हो? नहीं विप्र ऐसा नहीं हो सकता। मैं क्षत्रिय धर्म पालन करता हूं। हमारे मुंह से निकली वाणी तथा धनुष से छूटा बाण वापस नहीं आते हैं।
वह भिक्षुक अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गया। वह भिक्षुक और कोई नहीं मंच पर बैठी मां पार्वती के पति भगवान शंकर थे।
भगवान शंकर को देखकर मैं खुद आश्चर्य में पड़ गया। आप तो देना जानते हैं। आपको श्मशान भूमि ही पसंद है। मांगना कब से शुरू कर दिए भोले बाबा? आपको न कुछ खाने को चाहिए। न रहने को। आप तो सदा दूसरे को देने में मस्त रहते हैं। यह क्या देख रहा हूं? क्या यह सत्य है?
भगवान शंकर मुस्कुराते हुए बोले--हां राजन सत्य है। मैं आज से ही मांगना शुरू किया हूं। वह भी किसी कारणवश।
मैंने उन्हें उच्चासन देते हुए बैठने का आग्रह किया। उनका पद प्रक्षालन कर चरणामृत लिया। आरती-पूजा कर नैवैद्य भेंट किया। फिर पूछा क्या कारण है---प्रभु?
उन्होंने कहा हे राजन! तुम धार्मिक राजा हो। तुम नारायण के प्रतिनिधि हो। तुम्हारी मां (भगवती जी) भी राजकन्या हैं। शादी के बाद मैं श्वसुर पुर अर्थात हिमालय पर ही रहने लगा। तुम्हारी मां हमारी धर्मपत्नी कहने लगी कि हमारी सभी बहने अपने-अपने ससुराल रहती है। आप हमें हमारे ही पिता के गृह में रखे हैं। मैंने उसे समझाया कि तुम्हारा कोई श्वसुर नहीं है। केवल मैं ही तुम्हारा हूं। सदा तुम्हारे साथ रहता हूं। वह जिद कर दी की कहीं अन्यत्र चलो। मैं सूर्य को भेजा कि इस पृथ्वी पर पुण्य भूमि की खोज करो। सूर्यदेव खोजते हुए यहां आए और यहीं रह गए। फिर मैं नंदी, गणेश, कार्तिकेय, भैरव आदि देवो को बारी-बारी से भेजा। सभी काशी आकर किसी न किसी रूप में यहां बस गए। मैं अकेला रह गया। थक कर पता करते हुए काशी पहुंचा। यहां देखा कि किसी न किसी क्षेत्र में रूप बदलकर सभी देवगण निवास कर रहे हैं। तब मैंने पूछा--आप लोग यही क्यों बस गए? उन लोगों ने जवाब दिया कि भगवान इस राजा में कोई दोष नहीं है। यह साक्षात नारायण है। तब इसका राज्य कैसे छीना जाए? इससे युद्ध करना भी अधर्म है। हे राजन! मैं स्वयं एक वर्ष से काशी में घूम रहा हूं। तुम में कहीं कोई दोष नहीं पाया। मुझे यह भूमि पावन प्रतीत हुई। यही तुम्हारी मां को स्थाई रूप से रखना चाहता हूं। इसी कारण मुझे भिक्षा का सहारा लेना पड़ा। अब तुम्हारी जो इच्छा हो।
मैं तुरंत संकल्प कर पूरी काशी नगरी को दान स्वरूप भगवान शंकर को प्रदान कर दिया। अपना घर, मकान सभी कुछ जब छोड़कर चलने लगा तो भगवान शंकर बोले की हे राजन! तुम अभी एक तरफ रह सकते हो। मैंने कहा ऐसा नहीं हो सकता। मैंने इसे दान दे दिया। अब यहां का अन्न-जल तक नहीं ग्रहण करूंगा। आप विराजो।मैं धन्य भागी हूं जो आपने मेरा दान स्वीकार कर लिया तथा मां भगवती को काशी में लाकर रखने का वादा किया।
मैं उसी क्षण काशी छोड़कर गंगा के इस पार आ गया। तब मैंने सोचा कि अब कोई महल नहीं बनाऊंगा। झोपड़ी में रहकर ही भजन करूंगा। मेरे साथ अन्य भक्तगण भी भक्ति करने यहां आ गए। जब मां गंगा को ज्ञात हुआ तो वह प्रसन्न भी हुई, दुखी भी। प्रसन्न हुई कि उनकी छोटी बहन यहां आकर रहेगी। दुखी हुई कि उनका पुत्र देवोदास को गृह विहीन होना पड़ा।
मां भगवती जब काशी आ गई तब मां गंगा उन्हें अपने अंक में भर ली। (यहां गंगा उत्तरवाहिनी है तथा गंगा दो तरफ से काशी को घेर कर बह रही है। गंगा काशी की पीठ पर चलती है जैसे मां अपने बड़े बेटे को पीठ पर लेकर चलती है)। दोनों प्रेमाश्रु से मिली। समय-समय पर दोनों मिलती रहती। मां गंगा से मैं भी प्रतिदिन प्रातः-संध्या अवश्य मिलता। उनका वंदन करता। वह अश्रुपूरित नेत्रों से हमें गृहविहीन झोपड़ी में देखती। पेड़ के नीचे रहने वाले भोले बाबा को भवन में विहार करते देखती।
क्रमशः.……