साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

धीरे-धीरे सभी कुछ अनुशासित ढंग से शांत हो गया। सभी अपनी मस्ती में थे। भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग के सामने बैठे थे। उनका वर्ण भी श्याम ही था। दूसरी तरफ से मां पार्वती उठी और उनके वाम भाग में बैठ गई। वह अत्यंत गौर वर्ण की थी। उनके रंग-रूप से मातृत्व निखर रहा था। उनके अधर पर अपने पुत्रों के लिए प्यार बिखर रहा था। वह स्नेहमयी, करुणामयी
, दयामयी, प्रेम की मूर्ति प्रतीत हो रही थी। उनका पार्थिव शरीर भगवान शंकर के वाम भाग में मिलने लगा। किंतु यह मिलन विचित्र था। भगवान मां का भी अस्तित्व रखना चाहते हैं। उनका वाम भाग मां पार्वती का, दायां भाग भगवान शंकर का हो गया। यह विचित्र संगम प्रथम बार देखने को मिला। दोनों मिलकर अर्धनारीश्वर हो गए। वे पूर्ववत मुस्कान मुद्रा में, सिहासन पर बैठे थे। जैसे उनमें कोई परिवर्तन ही नहीं हुआ। जैसे एकाएक सभी कुछ रुक गया। मां पार्वती-पिता शंकर दोनों का अस्तित्व अलग-अलग भी हैं। दोनों मिलकर एक भी हो गए। इनमें दिव्य आभा निकल रही थी। जो संपूर्ण चराचर को आलोकित कर रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह स्थिति बहुत काल तक रही।
एकाएक स्थिति बदली। मां का स्वरूप विलीन होने लगा। भगवान शंकर सिहासन पर नील वर्णी परिलक्षित होने लगे। नीलवर्ण भगवान शंकर को शोभा, सौम्यता, सुंदरता का वर्णन करना मेरी लेखनी के वश में नहीं है। यह आधा-अधूरा वर्णन किसी तरह कर दी। अन्यथा वह पहले ही जवाब दे रही थी।कुछ काल के बाद भगवान शंकर की मूर्ति भी भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग में प्रवेश करने लगी। देखते ही देखते वह अंतर्ध्यान हो गई। ज्योतिर्लिंग रह गया। जिसमें अति लघु ढाई आखर का शब्द नि:सरित होने लगा। अब समझ में आया रहस्य मंत्र का।
सद्गुरु दृष्टा होते है। समय काल का एक ही सद्गुरु होता है। गुरु यत्र-तत्र सर्वत्र होते हैं। जो जाने-अनजाने उसी सद्गुरु से प्रकाशित होते हैं। संसार में गुरुओं की पूजा ज्यादा होती है। संसार में सद्गुरु की परख सभी नहीं कर पाते हैं। वे अनगढ़े हीरे हैं। जिन पर कोई कारीगर काम नहीं किया है। सूर्य से ही चंद्रमा, पृथ्वी आदि नक्षत्र, ग्रह प्रकाशित होते हैं। परंतु पूजा तो होती है--शनि , राहु , केतु और मंगल ग्रह की। क्योंकि यह उत्पाती ग्रह भी हैं। अनिष्ट से सभी भयभीत रहते हैं। बुरे लोगों की, खोटे लोगों की ज्यादा जमात इकट्ठा हो गई है। इसलिए खोटे गुरुओ की बाढ़ आ गई है।
पूर्व के ऋषि, सद्गुरु मेरे तरह ही सभी कुछ देखे होंगे। क्योंकि सत्य कभी पुराना नहीं होता है। वह करूणावश वर्णन किए। चित्रकार-मूर्तिकार उसका रूप-रंग आकार दिए। कालांतर में कर्मकांडी पुरोहित कर्मकांड का सहारा लेकर उनका पूजा-पाठ करना शुरू कर दिए। धीरे-धीरे अंतर यात्रा की जिज्ञासा ही समाप्त होने लगी। साधारण जनता कर्मकांड, पूजा से उसका काम लेना चाहती है। पुरोहित वर्ग उसमें सभी तरह के फलाफल का वर्णन कर दिए।साधारण जन को कुछ मुद्रा खर्च करने मात्र से स्वर्ग-धनादि का फल सहज ही प्राप्त होने लगा। जिससे उनकी अभीप्सा ही मृतप्राय हो गई।
कभी-कभी कोई साहसी पुरूष से ही जगता है। जिसका अंतर्मन द्वंद करता है। हमें देखना है। हमें जानना है। इसी जन्म में जानना है। वह सद्गुरु की खोज में निकलता है। गोविंद उसकी मदद करता है। वह साधक धैर्य पूर्वक गुरु की सेवा तन-मन-धन से करता है। उसके मन की मलिन वासना सेवा, सत्संग, सुमिरन से जाने लगती है। एक दिन ऐसा आता है कि वह पूर्ण समर्पण कर देता है। संदेह बह जाता है। श्रद्धा से भर जाता है। गुरु बाध्य हो जाता है। उसके धैर्य का बांध टूट जाता है। वह प्रसन्न मुद्रा में शिष्य को अपने अंक में भर लेता है। सभी शक्तियां क्षण मात्र में उड़ेल देता है।जिसे जन्मो जन्म में नहीं पाया जा सकता है उसे सुपात्र शिष्य क्षणभर में प्राप्त कर लेता है। इस विद्या को तर्क से नहीं पाया जा सकता। विद्वता से भी अग्राह्य हैं। इसकी एक ही विधि है--श्रद्धा-समर्पण की। बस गुरु को बरसना उसकी बाध्यता को जाती है। जैसे बादल घने जंगलों में ऊपर, समुद्र के ऊपर बरबस बरसने लगता है।