सद्गुरु के सानिध्य में रहने से साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी बुद्धत्व को ग्रहण कर लेता है।
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
नारद जी वाराह भगवान को समझा रहे थे। उपदेश दे रहे थे। धर्म शास्त्रों का सहारा ले रहे थे। ब्रह्मा का काम कर रहे थे। ब्रह्मा के साथ सरस्वती है। वह विद्या की प्रतीक है। वेद की प्रतीक है। ब्रह्मा समझा रहे हैं। वेद-शास्त्र को सामने रख रहे हैं। वाराह रूपी नारायण शरीर के स्तर पर टिका है। वह शारीरिक सुख को ही वास्तविक सुख समझता है। शरीर गत सुविधा जुटाना ही अपना कर्तव्य समझता है।वह नारद गुरु ब्रह्मा को अपने तर्कों का सहारा लेकर लौटा देता है। भगवान शंकर उन्हें समझाते कम हैं। अपने त्रिशूल का उपयोग करते हैं। शरीर छूट जाता है। सूक्ष्मा शरीर में नारायण रूप में वाराह प्रकट हो जाते हैं। अर्थात सद्गुरु जैसे ही शिष्य को सत-रज-तम की वृत्ति से हटाता है। सद्गुरु अपनी अंगुली को जैसे ही शिष्य के त्रिकुटी पर रखता है। साधक प्रेम मगन हो जाता है। दिव्यानुभूति से आज्ञा चक्र में प्रवेश कर जाता है। उसका संबंध वासनात्मक शरीर से छूट जाता है। आत्मातल से जुड़ जाता है। वह अपने को सूक्ष्म शरीर में नारायण के रूप में देखता है।
विष्णु की चार भुजाएं हैं। दो-भुजाएं नर की होती है। दो भुजाएं नारी को होती है। दोनों अलग-अलग शरीर में होते हैं --तब शरीर की मांग होती है। पुरुष स्त्री शरीर की मांग करता है। स्त्री पुरुष शरीर की मांग करती है। दोनों शरीर क्षण-भर को मिल जाते हैं। दोनों मिलन से वासना रूपी नदी वह चलती है। जैसे दोनों के मन मिलते हैं तब प्रेम रूपी नदी बहने लगती है। दोनों के आत्मा के मिलने से भक्ति रूपी नदी बह चलती है। यही स्वरूप है--भगवान विष्णु का। चार भुजा प्रतीक है---नर-नारी के मिलन का। पूर्णत्व का।
प्रत्येक पुरुष के अंदर है उनकी नारी। प्रत्येक नारी के अंदर है उसका पुरुष। साधक जैसे ही अपने अंदर आकर उससे मिलता है---उसकी यात्रा पूरी हो जाती है। आज्ञा चक्र ही उस संगम का नाम है। जहां राधा-कृष्ण का संगम है। महारास है। यही है भक्ति।
रामायण के दूसरे श्लोक में संत तुलसीदास जी कहते हैं--'श्रद्धा और विश्वास स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूं, जिसके बिना सिद्ध जन अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते।
भवानी शडृरौ वंदे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ ।।
याम्यां बिना ना पश्यंति सिद्धा स्वान्त:स्थमीश्वरम ।।2।।
भवानी श्रद्धा की प्रतिमा है। श्रद्धा के बिना समर्पण असंभव है। स्त्रैण चित ही भक्ति का लक्षण है। शंकर पुरुष चित का प्रतीक विश्वास है। अभी किसी पर किसी कारणवश विश्वास है। किसी भी क्षण विश्वास टूट सकता है। दोनों दो किनारे हैं। दोनों आत्मा तल पर स्थित है। तब भक्ति रूपी गंगा स्वत: नि: सरित हो जाएगी। दोनों का एक होना है अर्धनारीश्वर है। अपने आप में पूर्ण। गहन मौनता, पूर्ण समाधि।
सिद्धि प्राप्त करना आसान है। इसे तो अष्टांग योग के द्वारा, मंत्र के द्वारा, तंत्र के द्वारा, क्रिया योग के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। राक्षसगण सिद्धियों के स्वामी होते थे। अभी भी राक्षसी प्रवृत्ति के लोग स्वत: सिद्धियों के मालिक बन रहे हैं। लेकिन अपने अंदर स्थित ईश्वर को नहीं जान पाते हैं। ईश्वर अत्यंत नजदीक है, कहना भी अनुचित है। लेकिन कुछ कहना है। कहने का अवलंबन शब्दों से ही लेना पड़ता है। हम परमात्मा से ओत-प्रोत है। वही है। उसके लिए' ' है ' कहना भी परमात्मा की पुनरुक्ति है। रामचरितमानस के तीसरे श्लोक में कहते हैं -----
बंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शक्डर रुपिणम ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्धते ।।
अर्थात ज्ञानमय नित्य शंकर रूपी गुरु को मैं वंदन करता हूं, जिसके आश्रित होने से टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र वंदित होता है।
ज्ञान जो शाश्वत हो नित्य हो, ज्ञान स्वरूप गुरु ही शंकर होता है। शंकर का अर्थ होता है--कल्याण करने वाला। वह शिष्य की बातों को सुनता है। उसका प्रति उत्तर देना उचित नहीं समझता है। वह उसे बोध कराना चाहता है। विज्ञान भैरव में पार्वती पूछती कुछ है। भगवान शंकर उसे विधि बताते हैं। जिससे वह अपने अंदर स्थित ईश्वर को देख सकें। शंकर स्वरूप सद्गुरु को सभी नहीं झेल सकते हैं। उसे समझने के लिए भवानी की तरह श्रद्धा समर्पण होना चाहिए।जो अपने प्रश्नों के शाब्दिक अर्थ को ना देख कर बोधमय गुरु के द्वारा बताए गए विधि पर ध्यान दें। उसे अपने में उतारे, तब वह क्षण मात्र में अपने स्वरूप को जान सकता है। जैसे भगवान शंकर वाराह भगवान को चतुर्भुज स्वरूप को क्षण मात्र में उपलब्ध करा दिए। जो गुरु गोद में होता है, उस के सानिध्य में रहने वाला टेढ़ा, कुलटा, कपटी समयानुसार परिवर्तित हो जाता है। जन्मो-जन्मो के पुण्य के उदय होने पर ही गुरु का सानिध्य मिलता है। जो गुरु के सानिध्य में रहना स्वीकार कर लेगा। उसके दर्शन, सेवा, सत्संग से एक ना एक दिन बोधमय हो ही जाएगा। सद्गुरु के सानिध्य में रहने से साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी बुद्धत्व को ग्रहण कर लेता है। वह जगह पूज्य हो जाता है। साधक का कर्तव्य है--सद्गुरु की शरण में तम रहित होकर रहना। उसके दिशा-निर्देशन को पकड़ना तथा उधर ही गति करना।