साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
इस काशी की दिव्यात्माएं जब अधोगति को प्राप्त जीवो को देखती है, तब उनके उद्धार हेतु स्थूल शरीर में प्रवेश करती है। परंतु दु:खद घटना तब होती है जब वे उल्टे चैतन्य आत्मा को ही पागल कहने लगते हैं। उन्हें ईट- पत्थर मारने लगते हैं। पंडा-पुरोहित,मुल्ला- पादरी इन्हें समाज द्रोही कहकर दंड देने का आदेश पारित करते हैं। कुछ जीवात्मा अपने को नरक-कुंड से निकालने को कहती है। जैसे ही चैतन्यात्मा उसका हाथ पकड़ती है, वह चिल्लाने लगता है एवं आर्त स्वर में निवेदन करता है,प्रभु हमें यहीं छोड़ दो। यहीं विकसित होने का आशीर्वाद दो। जैसे कोई नाली का कीड़ा गंगा स्नान करना चाहता है,इस शर्त पर कि गंगाजल नाली में ही डाल दो। मैं अपने स्थान एवं स्वभाव को नहीं बदलूंगा। लाखों में एक आत्मा ही उस चैतन्यात्मा का हाथ पकड़ती है। उसके सामने पूर्ण समर्पित कर देती है।उसके अनुसार कार्य संपादित करती है। वह धन्य है। हम लोग उस पर अति प्रसन्न होते हैं।
चैतन्यात्मा साधारण जीवों के इस व्यवहार से क्षणिक खिन्न होती है। फिर करुणा करके उस पर दया की वर्षा करती है। उसे भी अपना दिव्य संदेश (मंत्र) दे देती है। उसके अंतर्चेतना में अपने मंत्र का बीजारोपण कर ही देती है। जिससे वह बीज रूपी मंत्र अवसर पाते ही वृक्ष के रूप में बदल जाए। इनके द्वारा लिया गया दीक्षा कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है। वह बीज रूपी मंत्र जन्मो जन्म तक पीछा करता है। यही कारण है कि गुरु-शिष्य का संबंध भी जन्मो जन्म का है। अब मैं चाहता हूं कि मंचासीन सम्राट ऋषि देवोदास अपने वचनामृत हम लोगों पर बरसाएं तथा स्वामी जी को उचित दिशा-निर्देश दें।
गणपति जी मंच से उतरकर सामने आकर अपने आसन पर विराजमान हो गए।सभी अपने प्रकाश से प्रकाशित थे। कहीं कोई आपस में बोल नहीं रहा। जैसे सभी समाधि में हो।उनकी आंखें चमक रही थी।जैसे उनकी एक आंख सूर्य है।दूसरी आंख चंद्रमा।
देवोदास के वचन----
देवोदास अपने आसन से उठ खड़े हुए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि नक्षत्रों के बीच सूर्य का आगमन हो गया। उनके चेहरे से दिव्य ज्योति निकल रही थी।उनका संपूर्ण शरीर ही ज्योतिर्मय था। कानों में कुंडल सूर्य की तरह देदीप्यमान हो रहे थे। विशाल छाती का द्वार सूर्य मंडल की तरह लग रहा था। उनके चेहरे पर गजब की शांति थी। तेज था। वे मुस्कुराते हुए बोले----"स्वामी जी, गणपति जी, वीरभद्र जी, चंद्रप्रभा जी, अश्वनी जी, अग्निवेश जी आप पांचो महानुभाव बाहर से अपनी अतिथि का स्वागत कर आदर पूर्वक अंदर लाने का कष्ट करें।'
पांचों देव एक साथ खड़े हुए। विद्युत गति से बाहर गए। कुछ ही क्षणों में फूलों से लदे एक दिव्य पुरुष को अंदर लाए। सभी के साथ मैं भी खड़ा होकर अभिवादन किया। वे सभी को हाथ जोड़कर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाए। वे सीधे मंच पर आए तथा सभापति देवोदास को अभिवादन कर माता पार्वती तथा मां गंगा का पद स्पर्श कर खड़े हो गए। सभापति ने उन्हें आदर पूर्वक आसन दिया तथा ग्रहण करने का निवेदन किया। वे आसन पर विराजमान हो गए। ये सभी गगन मंडल में दूसरे सूर्य की तरह प्रतीत हो रहे थे। इनका चेहरा अत्यंत सौम्य, गंभीर, तेज से पूर्ण था। मेरे मन में कौतूहल हो रहा था कि ये कौन है? ये जाने-पहचाने लगते हैं। इनसे हमारा परिचय लंबे अंतराल से है। कुछ क्षणों के लिए विस्मृत हो रहा था।
देवोदास अपने व्यक्तय को आगे बढ़ाते हुए बोले--आप की सभा में भगवान परशुराम का भी आगमन हो गया है। इनका आगमन यों ही नहीं होता। यें इतिहास पुरुष है। इनके आने का अवश्य ही सार्थक कारण होगा।
मैं परशुराम शब्द सुनकर एकाएक कुछ क्षण के लिए अचंभित हुआ, फिर गौर से उन्हें देखने लगा। वे भी हमें देख कर मुस्कुरा दिए। मैं हर्षित हो गया। यूं तो अति गंभीर मुद्रा में रहने वाले हैं। इनके पीठ पर हर समय वेद,तरकश एवं धनुष तथा हाथ में फरसा दिखाया गया है। इन्हें अति क्रोध मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। ऐसा क्यों? ये तो अति शांति को उपलब्ध है। क्या आत्म शरीर पर पहुंच व्यक्ति भी घृणित व्यवस्था (जातिवाद) का प्रतिपादन करेगा? क्या पुष्प को अंगारे के धागे से गूंथा जा सकता है? ऐसा संभव नहीं है। चूंकि मैं आत्मशरीरी एवं ब्रह्म शरीरियों की सभा में बैठा हूं। कहीं किसी में उन्माद नहीं है। यदि परशुराम जी में जरा भी अहंकार होता तो वे बिना आमंत्रण के इस सभा में नहीं आते। इन लोगों में भी अहंकार होता तो ये भी बाहर जाकर इतने सम्मान पूर्वक अंदर लाकर इन्हें आसनारूढ़ नहीं कराते। ये सभी आत्मीय रूप से एक- दूसरे से प्रेम करते हैं। इनमें द्वेष लेशमात्र भी नहीं है। ये तो परमानंद में डुबकी लगा रहे हैं।
देवोदास अपनी मधुर वाणी को बिना विश्राम दिए बोलते जा रहे हैं। वहां किसी माइक या यंत्र की आवश्यकता नहीं थी। न ही लोगों को शांत करने हेतु किसी व्यक्ति की। यह सभा स्वामी कृष्णायन जी के स्वागत में बुलाई गई है। ये सभी आत्मशरीरी-ब्रह्मशरीरी इसी बहाने से एक जगह एकत्रित हुए हैं। स्वामी जी के मन में चल रहे प्रश्नों का पहले निराकरण करना चाहूंगा।
सदियों पहले मैं चंद्रवंशीय राजा था। चौथेपन में पूजा-पाठ ध्यान हेतु जगह का चुनाव किया। फिर यहां आकर अपना निवास बनाया तथा अपनी सेवा, पूजा एवं अन्य कार्यों हेतु कुछ विशिष्ट नागरिकों को बसाया। जो धर्म में अभिरुचि रखते थे। हम लोग दिन भर हरि चर्चा करते एवं सुबह, दोपहर, शाम तथा अर्ध रात्रि को विशेष कीर्तन और ध्यान में मस्त रहते थे। भूल कर भी परनिंदा नहीं करते। इसी जगह को काशी कहते हैं। मेरी मान्यता के अनुसार यह राजघाट से अस्सी घाट तक केवल गंगा के किनारी ही काशी है। जो पुण्यभूमि में स्वयं निर्मित कर बसाया गया था।
यहां सभी सदाचारी, ब्रह्मचारी, दानी एवं व्रती थे। मैं स्नान एवं पूजा के बाद जब निकलता था तो याचकों को मुंह मांगा दान देता था। दान लेने वाले को सोचना पड़ता था कि क्या मांगू? इस तरह इस नगर में सदा धार्मिक महोत्सव बना रहता था।