साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
मैं यथा क्रम सभी को नमन कर बोलने को खड़ा हो गया। कर्म, विकर्म,अकर्म पर बोला। साधना, साध्य और साधक पर भी अपना मत व्यक्त किया। आज का मानव जगत जो अपने पथ से भ्रष्ट हो गया है। सभी लोग संपत्ति, शक्ति और शासक के पुजारी हो गए हैं। परहित भूल गए हैं। स्वहित ही सब कुछ हो गया है। वह भी सांसारिक उन्नति से उन्नति नापी जा रही है। स्वार्थता के संकीर्ण दलदल मैं सभी फंस कर रह गए हैं। राजनीति धर्म विरोधी हो गई है। दोनों में छत्तीस का गठबंधन है।
मैं ऐसे ही विषय समय एवं परिस्थिति में संसार में आता हूं। नया आलोक, पथ दिखाता हूं। हर समय मेरा विरोध होता है। उसी विरोध से एक चिंगारी निकल आती है। जो मेरा साथ देती है। उसी साथी में मैं दिव्यता भर देता हूं । अपने को पूर्णरूपेण उडेल देता हूं। वह सुपात्र ही हमारा प्रतिनिधित्व करता है। अलख जगाता है। सभी में शांति-मैत्री-करुणा का संदेश देता है। वही पृथ्वी पर नवजीवन,नव जागृति का शंखनाद करता है। सृष्टि को नए ढंग से सृजन करता है। वह जन-जन का प्यारा राम होता है। कृष्ण होता है। नाम कुछ भी हो सकता है। कार्य प्रिय होता है। अतएव नाम प्यारा हो जाता है।
आप सभी ज्ञान विज्ञान की उच्चतम शीर्ष पर पहुंचे हुए हैं। भले ही आप कुछ महापुरुष उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हों। परंतु समझ तो पूरी है। मानव का मस्तिष्क दस कोशिकाओं से निर्मित है। सभी पूर्ण सजीव चेतन है। परंतु सभी में तारतम्यता नहीं है। जिसमें आदमी दुर्गुणों, दुर्व्यसनों से पराजित हो जाता है। जिस व्यक्ति को ऐसे सेल्स जितने एक तारतम्य में रहते हैं, उसमें एक रस उत्पन्न होता है। वह किसी भी क्षेत्र में अभूतपूर्व हो जाता है। व्यक्ति के मस्तिष्क के मुकाबले में अभी तक कोई भी सुपर कंप्यूटर नहीं निकला है। इसे ध्यान के विधि से भी समरस किया जाता है। ध्यान में इसमें दिव्यता आ जाती है। जिससे असाध्य भी साध्य बन जाता है। गुरु इसी तरह के शिष्य के मस्तक पर स्पर्श करता है। और क्षण भर अपनी संपूर्ण शक्ति को उड़ेल देता है। बहुत से गुरु अपनी पूरी उम्र शिष्य के इंतजार में ही बिता देते हैं। उन्हें कोई पात्र नहीं मिलता है। वे यों ही वापस चले जाते हैं। सद्गुरु तो इतनी आसानी से हिम्मत नहीं हारते----बल्कि जहां कुछ भी संभावना दिखती है, उसे अपने सानिध्य में लाते हैं। उसका मन:मस्तिष्क एक तारतम्य में लाते हैं। फिर अपने सर्वस्व का उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति में शुभ-अशुभ संस्कार एवं अवयव वर्तमान रहते हैं। भले ही उसकी मात्रा के अनुपात में न्यूनाधिक हो। जैसे हमारी आत्मा की यात्रा अनंत काल से है। उसी तरह शरीर के अणु भी विभिन्न परिस्थितियों, व्यक्तियों से यात्रा करते हुए हम तक आए हैं। भविष्य में भी इनकी यात्रा जारी रहेगी। यह संयोग है कि ये अणु अभी हमारे साथ है। कल किसी और के साथ रहेंगे। हवा के एक घन सेंटीमीटर में पैंतालीस अरब मॉलिक्यूल होते हैं। इस तरह पृथ्वी पर कितने एटम होंगे, हिसाब लगाना असंभव है। फिर भी सभी का अपना अस्तित्व है। उसे नकारा नहीं जा सकता। तब इस बात की पूरी संभावना है कि हमारे शरीर में अणु ऐसे हो, जो कभी आप में अर्थात देवोदास, परशुराम, विनायक, मां पार्वती, मां गंगा, भगवान शंकर, राम, कृष्ण, विश्वमित्र,अत्रि, बुद्ध, महावीर के शरीर में भी रह चुके हों। हमारा हर एटम बरसों की यात्रा तय कर लाखों वस्तुओं, प्राणियों से होता हुआ हम तक आया है।
जब किसी व्यक्ति के शरीर से आत्मा निकलती है, तब शरीर के तत्व किसी प्राणी के शरीर, फूल, पत्ते, ओस की किसी बूंद या किसी ना किसी जीव के शरीर में समाहित हो जाते हैं। इस तरह अपने अंश के तौर पर हम मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं। हमारा प्रत्येक अणु कहीं ना कहीं अवतीर्ण होते रहता है। हमारी अवतार की परंपरा लगातार चलती रहती है।
एक व्यक्ति भी रामत्व को बुद्धत्व को प्राप्त होता है तब उसके अरबों-खरबों शरीर में निहित अणु में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। वह उस परम सत्ता से जुड़ जाता है। फिर जैसे ही उसका अवतरण दूसरे प्राणी में होता है; तब उस प्राणी की गुणवत्ता में भारी परिवर्तन होता है।
उसी तरह दुष्ट व्यक्ति, प्राणी के शरीर के अणु में भी नकारात्मक गुणवत्ता होती है। उसके शरीर छोड़ने पर भी उसके अणु के अवतरण होने पर नकारात्मकता के वृत्ति की वृद्धि होती है।
हमारा श्राप देना या आशीर्वाद देना भी इसी आधार पर फलीभूत होता है। जैसे ही हमारी वाणी किसी को आशीर्वाद देती है। उस समय वायुमंडल के उपस्थिति अणु में गुणात्मक परिवर्तन होता है। वही अणु उस प्राणी, व्यक्ति के चारों तरफ घेर लेते हैं। शब्द ब्रह्म अमर है। वाक्य के अनुसार उसे कार्य रूप में परिणत कर देता है। समय लग सकता है। व्यर्थ नहीं जाता है। उसी के अनुरूप यदि आप इस जन्म में उसे प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं तब वह वाक्य एवं अणु दूसरे जन्म, तीसरे जन्म, जन्मों जन्म तक पीछा करता है। तथा उस आशीर्वाद या श्राप का फलाफल अवतीर्ण तो हो जाता है।
क्रमशः----