साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
मार्कण्डेय जी-"स्वामी जी! उस आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ?" स्वामी जी—''हे मेरे हृदेश ऋषिवर! ध्यान से सुनें- आसन, यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ये छः स्वकीय है। हठ योग से, क्रिया योग से इसके बल पर प्रकृति प्रदत्त कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। परंतु सातवां ध्यान, आत्मा का दर्शन गुरु अनुकंपा का परिणाम है। आंठवा उसमें रमण करना समाधि तो फल है।
प्राणायाम से प्रत्याहार एवं धारणा से भी एकाएक ऐन केन बनावटी (Artificial) जबरदस्ती समाधि में जाने का स्वांग होता है। जिसको आप सभी जानते हैं। वह समाधि पूर्ण विराम नहीं है। अमन नहीं है। बल्कि बाह्य यात्रा रुक गया है। अन्तर यात्रा शुरू हो गई है। यात्रा शेष है। अंदर यात्रा जैसे मैं इस यात्रा पर आया हूं। वहां के लोग समझेंगे कि गुरुदेव समाधि में हैं। परंतु मेरा सारा जागतिक व्यवहार यहाँ भी है। चाहे वह व्यवहार संसार के साथ हो चाहे देवता के साथ हो। क्या अन्तर है। इस समाधि में भी जीव के मन का व्यापार ज्यों का त्यों होता है। मात्र स्थान बदल जाता है। किसी कमल दल के एक लोक का यात्रा कर रहे हैं। मन से समझौता हो। गया है। अमुक दिन तक अंदर की यात्रा अमुक चक्र के अमुक लोक की यात्रा करा दो। मन वहां की यात्रा कराता है। फिर इस तथाकथित समाधि से बाहर आने के बाद मन पूर्ववत विषय रूपी विष्ठा पर ही बैठता है। अतएव इस समाधि की कोई कीमत नहीं है।" मार्कण्डेय जी - "स्वामी जी उस गुरु को कैसे पहचानें एवं उनकी सेवा कैसे करें ?"
स्वामी जी - " हे ऋषिवर! जब साधक का जन्मों जन्म का पुण्य उदय होता है। तब परमात्मा ही उस सद्गुरु के सानिध्य में बरबस भेज देता है। जब उसके हजारों जन्मों का पुण्य उदय होता है, तब उसकी सेवा तन, मन, धन से करता है। उनके बताए हुए रास्ते पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते चलता है। उनकी सेवा चरम निर्देश के ग्यारह बिंदु दिए गए हैं। उसे पालन करना ही होगा।
गुरु ही परमब्रह्म का प्रतिनिधि होता है। धर्म का दण्ड उन्हों के हाथ होता है। देवता या देवी का अधिकार क्षेत्र अलग-अलग है उनको सृष्टि को ठीक से व्यवस्थित करना है। जैसे राष्ट्रपति अपने विभिन्न मंत्री या अधिकारियों में विभिन्न तरह का अधिकार सौंप कर राष्ट्र का संचालन कराता है। धर्म प्रचार किसी अधिकारी को नहीं सौंपता है।"
परम ब्रह्म, सत्पुरुष यह कार्य स्वयं करता है। चूंकि जिस देवता या अवतार को भेजता है, वह स्वयं की पूजा एवं कर्मकाण्ड की व्यवस्था करा लेता है। इस तरह पृथ्वी पर नित्य नए-नए धर्म एवं भगवान पैदा होने लगे। तब वह जगन्नियंता स्वयं सद्गुरु के माध्यम से इस पावन धर्म का प्रचार करता है।
गुरु ॐ के साथ शब्द विशेष का संयोजन कर उस परम ब्रह्म का दर्शन कराता है। उस ॐकार का भी अविनाशी सगुण रूप गुरु है। यही ॐकार गुरु अनुकंपा से अविनाशी परम ब्रह्म निर्गुण ब्रह्म की उपासना हो जाती है। ॐकार के साथ वह खास शब्द अंदर ध्वनित होती है। गुरु के साकार रूप का ध्यान ही उस निर्गुण परम चेतना के तरफ ले जाता है। यह शब्द अंदर तक को आलोकित कर देता है। आत्मा के सामने से माया का पर्दा उसी तरह हट जाता है, जैसे सूर्य के सामने से बादल को हवा हटा देता है। फिर साधक आत्मदर्शी हो जाता है। वही आत्मा गुरु पर्वत से गुरु द्वार से परम पुरुष को प्राप्त होता है। उस परम ब्रह्म की प्राप्ति सद्गुरु के माध्यम से शीघ्र ही संभव है। हे ऋषिवर! आज तक के जितने भी विधि बताए गए हैं, उन सभी प्रकार के आलम्बनों में श्रेष्ठ आलम्बन अर्थात उपासना का प्रतीक यही है। इससे श्रेष्ठ और कोई भी आलम्बन नहीं है।
यह आत्मा शरीर रूपी लोक के बुद्धिरूपी गुफा में छिपा है। यह शरीर ही इसका रथ है। गुरु कृपा रूपी बुद्धि सारथि है। मन ही लगाम है। इन्द्रियां घोड़े हैं। आत्मा रथी है। जीव भोक्ता है। सारथिं गुरु कृपा रहित है, विवेकहीन है, तब उसके इन्द्रिय रूपी घोड़े वश में नहीं रहते हैं। वे उसे कुमार्ग में ले जाकर वासना रूपी गई में पटक देते हैं। अतएव जो एकाग्र होकर गुरु के शरणागति करता है उसे विवेक रूपी बुद्धि प्राप्त होती है। वह एकाग्र चित वाला पवित्र रहता है। वह शिष्य अवश्य उस परम पद को प्राप्त कर लेता है। जहां से फिर लौटना नहीं है। वहां आनंद हो आनंद है। जरा-मरण, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, देवता-दानव का मोह समाप्त हो जाता है। वहां सदा दिवाली है। सदैव उत्सव है। सदैव परमानन्द है। वहां पुण्यापुण्य का भय समाप्त हो जाता है।
देवी-देवता के उपासना में लेन-देन चलता है जैसे मुर्गा जब बांग देता है। तब उसे समझ होती है कि उसके बांग देने से ही सूर्योदय होता है। उसके बांग देने से हो उसका मालिक उसे बैठे-बैठे अच्छा खाना-पानी देता है। परंतु मालिक का ध्यान उसके मांस पर रहता है। फिर उसके अंडे पर रहता है। यही स्थिति तांत्रिक, मांत्रिक, गुरु शिष्य या देवी-देवता के उपासकों के साथ होती है। ऋषिगण एवं देवगण आप ही आज मेरे ओता है फिर भी मैं सत्य आपके सामने उद्घाटित कर देना चाहता हूँ।
गुरु की विद्या मात्र मानव संस्कृति की ही देन है। सद्गुरु शिष्य (साधक) एवं परमात्मा (साध्य) के बीच में एक नाली बना देता है। जिससे दोनों जुड़ जाते. हैं। ऊंचे तालाब का पानी स्वतः नीचे तालाब में तब तक आता रहता है जब तक दोनों का स्तर एक न हो जाए। शिष्य अनजाने में उच्चतम बिंदु से जुड़कर अनन्त हो जाता है। इसमें मात्र साधक को गुरु के प्रति समर्पण करना होता है। उसे अपनी आकांक्षा और कार्य पद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश करना होता है। साधक का गुण कर्म स्वभाव गुरु के अनुरूप होने लगता है। वह गुरु के सोचने मात्र से उसे कार्य रूप में परिणत करने लगता है। उस भक्त के रास्ते में ऋद्धि-सिद्धि मुक्ति मिलते हैं। परंतु साधक तो उसके एकत्व, अद्वैत, विलय, विसर्जन में विश्वास करता है।
जो साधक अपनी-अपनी निकृष्टता को बनाए रखता है। अपनी पात्रता और पुरुषार्थ का व्यतिरेक करके गुरु पर चित्र-विचित्र मनोकामनाओं के पूर्ति हेतु दबाव डालता है। यही दुराग्रह है। जो भक्ति भावना के विपरीत है। वह अपने शब्द जंजाल से फुसलाकर, छुटपुट उपहार देकर बरगलाने और स्वार्थ सिद्धि के लिए बहेलिए, मछुवारे जैसे छद्म प्रदर्शनों की रचना न तो गुरु भक्त है। और न उसके बदले किसी बड़े सत्परिणाम को आशा ही की जा सकती है। उसके यहाँ पात्रता की कसौटी पर हर खरे-खोटे को परखा जाता है। प्रामाणिकता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान का कारण होती है। यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा-अर्चना मात्र करते रहने से नहीं होता। वह भक्ति, कर्मकाण्ड प्रधान नहीं है। उसमें भावना,
विचारधारा सर्व समर्पण और गतिविधियों को उत्कृष्ट बनाना होता है।
आत्मोत्थान के लिए हर हालत में उपासना, साधना एवं आराधना को अंगीकार करना ही होगा। उपासना - गुरु की इच्छा को सर्वोच्चता से पालन करना। उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठता के लिए गुरु द्वारा निर्देशित प्रक्रिया में भाव भरी
नियमितता का अनुपालन ही उपासना है।
साधना - अपने चिर संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय आदतों, रूढ़ीवादी, मान्यताओं को गुरु इच्छानुसार उन्मूलन करना ही साधना है। आराधना — गुरु के इच्छानुसार लोक मंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में पूर्ण उदारता से सहयोग देना ही आराधना है। इसमें एक को भी छोड़कर
पूर्णता के पथ पर अग्रसित होना संभव नहीं है। आपकी सज्जनता और साद्भविकता
का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है।
आप सभी ने पूर्ण मनोयोग से सुना इसलिए मैं आपका आभारी हूं। आप सभी के हृदय देश में स्थित परमात्मा को मेरा नमस्कार है। मेरा नमस्कार स्वीकार करें। धन्यवाद।????????
क्रमशः.....