साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ज़ी की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
अनहद चक्र चतुर्थ चक्र है। इसके नीचे तीन चक्र अर्थात लोक है। ये लोक ही दक्षिणायन लोक कहलाते हैं। इसे अध:लोक भी कहते हैं। इसके ऊपर भी तीन चक्र है। तीन लोक भी कहते हैं। इसके ऊपर उत्तरायण लोक या ऊर्ध्व लोक कहलाते हैं। दोनों लोको का यह युग्म संगम है। कैलाश है।
यहां षटकोण बनता है। जिसे महेश्वराशस्त्र भी कहते हैं। यह षटकोण गुरुत्वाकर्षण का प्रतीक भी है। इसके ऊपर जाने पर ऊर्ध्व लोकगामी होता है।मूलाधार चक्र के ऊपर अर्थात गुप्तांग के ऊपर आप गौर से देखें त्रिकोण बनता है। यही कारण है कि साधक को इसी तरह का लंगोट पहनने को दिया गया। बाद में इसी शक्ल में कच्छा का विकास हुआ। यह शक्तिपुंज कुंडलिनी शक्ति में निवास करती है। जो कामवासना के द्वारा सहज ही अधोगामी होती है। जैसे जल सदा नीचे की तरफ भागता है। नीचे गिरना उसका सहज स्वभाव है। ऊपर चढ़ने के लिए नदी में मजबूत बांध की जरूरत पड़ती है। कमजोर बांध को तोड़ देता है। तब वह नदी और विनाशकारी साबित होती है। यही कारण है कि भगवान शंकर और पार्वती इस सृष्टि-चक्र का प्रथम परिवारिक बंधन है। शादी है, जिसमें संयम पूर्वक रहते हुए ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन किया जा सके। उन्होंने भैरव विज्ञान देकर उर्ध्वगमन की विधि बताई। आगे संसार की सारी विधियां उसमें समाहित हो जाती है कुछ विधियां पीछे काल के लिए उपयुक्त थी। कुछ अभी के लिए कुछ भविष्य के लिए उपयुक्त होगी। विज्ञान भैरव से बाहर आज तक कोई भी व्यक्ति नई विधि नहीं दे सका।
ह्दय- चक्र के ऊपर आप अपने को ऐनक के सामने खड़े होकर देखें। दोनों स्तनों से होते हुए गर्दन तक भी एक उर्ध्वगामी त्रिकोण बनता है। अर्थात् कैलाश से ऊपर जाने का मार्ग है। यही संगम बिंदु है। बहुत भक्त यही ध्यान करते हैं। अपने इष्ट देव की मूर्ति यहीं स्थापित करते हैं। यहां ध्यान करने पर भी साधक का ऊर्ध्व गमन हो जाता है। चूंकि रास्ता तो यहीं से ऊपर जाने का है। नीचे जाने का भी यहीं से है।
इसी लोक से नीचे के तीनो लोक नियंत्रित होते हैं।जो साधक नीचे के लोकों से सफलतापूर्वक यात्रा करते ऊपर आता है उसे यहां से ही मार्गदर्शन मिलता है। हालांकि साधक एक-एक लोक को मोह-आकर्षण, प्रिय, रूचिकर स्थिति से जन्मो जन्म वहीं रुके रह जाते हैं। हृदय चक्र तो अत्यंत रमणीय है। शासक तंत्र भी है। साधक यहां से ऊपर नहीं जाना चाहता है। शरीर छोड़कर भी इसी लोक में निवास करना चाहता है। सारे तपस्वी इसी लोक तक रहते हैं। ऊपर तपस्वियो का गमन नहीं है। इसके ऊपर गुरु गोविंद के अनुकंपा का प्रसाद ही समझा जाता है। यह सभी "क्षर''लोक है। आप जितना तप किए हैं, उसी के अनुरूप फलाफल भोग पर पृथ्वी पर आना पड़ता है। फिर से नया संस्कार प्रारंभ करना पड़ता है।
मूलाधार चक्र से अनाहद चक्र तक 32 लोक है। जैसे मूलाधार चक्र 4 दल कमल दल अर्थात 4 लोक हैं। मध्य भाग में स्थिति गणेश संपूर्ण लोकों का नियंता है। उसी तरह स्वाधिष्ठान चक्र पर छ: लोक ब्रह्म लोक का नियंता ब्रह्मा है। मणिपुर चक्र के 10 लोक जिसके नियंता भगवान विष्णु है। अनहद चक्र के 12 लोक जिसके नियंता भगवान शंकर है। इसके साथ ही इनके नीचे सभी लोकों पर इनका नियंत्रण रहता है। 4 + 6 + 10+12 = 32 लोक है। पूरी सृष्टि इन्हीं 32 लोकों में व्याप्त है। 32 ही व्यंजन है। इसमें चार जोड़ दें तब 36 व्यंजन पूरे हो गए। मानव-मन इससे ऊपर नहीं जाना चाहता है।न ही ये देवगण अपने अधिकार क्षेत्र से जाने देना चाहते हैं। विशेष जानकारी हेतु मेरी अन्य पुस्तकों का अवलोकन करें। सबसे उत्तम तो है कि आप स्वयं यात्रा पर निकल जाएं। यहां तक क्षर लोक है। अर्थात अपने द्वारा किया गया तप से जो पूज्य एकत्र हुआ है। उसका फलाफल यहीं तक भोगकर क्षय करना है। फिर आवागमन के चक्र में लौट जाना है। इसके ऊपर अक्षर लोक प्रारंभ होगा।