साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सद्गुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
मैं सहस्त्रार से क्रमशः गुरु पर्वत एवं चक्रों को पार करता हुआ मूलाधार चक्र पर पहुंचा। कुछ वर्षों से मैं हठयोग छोड़ दिया था। सहज में रहना ही स्वीकार कर लिया था। जब साधक अपने इष्ट देव (गुरु) के साकार रूप का ध्यान करता है। तब परमात्मा के प्रति उसका प्रेम और आकर्षण पहले से कहीं अधिक बढ़ जाता है। वह अपने इष्ट से और अधिक अनुरक्त हो जाता है। वह अपने इष्ट देवता और अपने आस-पास के स्त्री-पुरुषों के बीच अंतर देख कर भौंचक्का रह जाता है। सामान्य लोगों की दुर्बलता-समीपता देख कर, उसके प्रति करुणा पैदा होती है। वह अपना समग्र मन, बुद्धि, इच्छाशक्ति और भावनाएं उस पर केंद्रित कर देता है। वह तीव्र व्याकुलता के साथ उसका ध्यान (त्राटक) और मन ही मन प्रार्थना करता है। गुरु-गोविंद उनके लिए विचलित हुए बिना अधिक समय तक नहीं रह सकते।इसी क्रम में साधक अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता है। वह पाता है कि उसके इष्ट देवता और परमात्मा के स्वरूप स्वरूप दोनों एक ही है। उसकी आत्मा उसी परमात्मा ज्योति की अभिन्न अंश है।
मूलाधार चक्र पर सुषुम्ना के मार्ग से ही यात्रा संभव है। इसके लिए चिर-परिचित हठयोग का सहारा लिया एवं तत्क्षण यात्रा प्रारंभ हो गई। मूलाधार चक्र पर स्थित गणेश जी, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ का मानसिक पूजन किया। सभी प्रसन्न मुद्रा में हमें आशीर्वाद दिए। मैं ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुंचा। जहां 6 दल कमल के मध्य में प्रजापति ब्रह्मा सरस्वती के साथ विराजमान हैं। यही जीव निवास करता है। ब्रह्मा यहीं से सृजन करते हैं । श्वेतांबर ब्रह्मा एवं मां शारदा का पूजन किया। किसी भी दरबार में कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। अन्यथा आप खाली हाथ वापस आ जाएंगे। मन विभिन्न प्रकार की पूजा एवं नैवेद्य का सामान तुरंत प्रस्तुत करता है। यह पूजा बाह्य पूजा से अनंत गुना श्रेष्ठ है। ऐसा संतों एवं शास्त्रों की मान्यताएं हैं।
मैं मणिपुर चक्र 10 दल कमल पर पहुंचा। क्षीर साथी विष्णु एवं मां लक्ष्मी की पूजा-अर्चना किया। चलने को उद्धत हुआ कि मेरे मन में प्रश्न उत्पन्न हो गया। प्रभु आप नीलवर्ण क्यों हो? नीला तो कोई पुरुष नहीं होता है। ऐसा क्यों हो गया? भगवान विष्णु प्रसन्न मुद्रा में बैठ गए। हमें भी बैठने हेतु मां लक्ष्मी से आसन देने को कहें। मैं यंत्रवत बैठ गया। विशाल राज महल में भगवान विष्णु, मां लक्ष्मी एवं मैं बैठा था। वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले अभी तुम जगन्नाथ पुरी से लौट कर आए हो। मैं (मैं 11 -01 - 2003 को पुरी तथा 14 -01-2003 को गंगासागर गया था) संध्या समय स्नान करने के लिए तुमने कपड़ा उतार दिया था। महात्मा जानकीदास एवं आशा की मां जो वृद्धा अवस्था में है। परंतु गुरु गोविंद के प्रेम में सदैव मस्त रहती है।वे दोनों दो तरफ से आप की भुजा पकड़कर सागर में चलने को कहीं। वे जीवन में प्रथम बार सागर देखी थी। अतएव भगवान की अनुकंपा से ओत -प्रोत थी। अपनी भान भूल कर गुरु गोविंद में लीन हुई जा रही थी। आपके मन में भाव आया कि मैं अब सागर में नहीं जाता। सागर मेरे नाना हैं। आपने कहा मैं इतनी दूर से आया हूं। यह मेरा ननिहाल है। नाना जी को आकर पद प्रक्षालन करना होगा। भगीना ब्राह्मण होता है। भगीना की पूजा नाना जी को करना होगा। तब नाना जी के घर जाऊंगा। सभी भक्त भौचक्क हो गए। नाना कैसे गुरुदेव। आपने कहा, विष्णु हमारे पिता हैं। लक्ष्मी हमारी मां है। लक्ष्मी सागर पुत्री है। सागर नानाजी हुए न । इतना कहना था कि सागर अपने लहरों के साथ उठे और एक फर्लांग पर आप खड़े थे। आपके चरणों को पखारा। आप का जूता, अपनी लहरों के साथ ही ले जाने लगे। तब आपका शिष्य संभव भारती जूता पकड़ कर लाया। तत्पश्चात आप सभी सानंद सागर में स्नान किए एवं मेरा दर्शन किए। आप बार-बार मेरा दर्शन कर भावविभोर हो रहे थे। भक्तगण आप में ही मुझे देखकर भावविभोर हो रहे थे। आपसे मेरा संबंध चिरंतन है। स्थायी है। आप मेरे ही साकार रूप हैं।संसार में कार्य करना है तब शरीर ग्रहण कर लीला तो करना ही पड़ेगा। जो व्यक्ति जितना अच्छा लीला करता है, वह उतना ही शुद्ध चैतन्य प्रबुद्ध सतचित आनंद को उपलब्ध होता है। चूंकि संसार ही मेरा लीला है। जो लीला को सत्य मानकर उसमें आबद्ध हो जाता है। वह प्रकृति की गति को अवरुद्ध करने का दुस्साहस करता है। वही संसारी है।
भगवान विष्णु ने कहा आप मेरी तरफ देखें। मैं पूर्ण योग से त्राटक क्रिया से उन्हें देखने लगा। भगवान विष्णु का नीलम वर्ण शरीर विलीन हो गया। वहां काले वर्ण का विष्णु उसी रूप में ,मुद्रा में, बैठे थे। मैं कभी आंख मलता, कभी आंखें फाड़ कर उन्हें देखता। बिल्कुल श्याम वर्ण भगवान विराजमान है। यह कैसे हो गया? प्रश्न उत्पन्न हो गया। तत्क्षण देखते हैं कि सुदूर बैठी गौर वर्ण मां लक्ष्मी धीरे-धीरे उनके नज़दीक आती है। वे प्रकाश से आत्मा से परिपूर्ण है। भगवान के वाम भाग में बैठ जाती है। धीरे-धीरे मां की प्रतिमा भगवान के वाम भाग में प्रवेश करने लगती है। जैसे कोई स्थूल शरीर नहीं है। मां लक्ष्मी का शरीर विलीन हो गया। भगवान अब चतुर्भुज नीलवर्ण रूप में बैठे मुस्कुरा रहे हैं। मैं श्रद्धा से झुक गया। समझ आ गई कि श्याम+गौर वर्ण=नीलवर्ण। मेघ नीलवर्ण है। सागर नीलवर्ण है। आकाश नीलांबर है। नील अर्थात अथाह प्रेम। यह प्रेम मई स्वरूप है।