लघुकथा

डॉ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छग

लघुकथा

सिटी बस की भीड़ में ,दो बेटियां माँ का हाथ व पल्लू पकड़े खडी़ थी और एक बेटा लाड़ से पिता गोद में बैठा था । बस खचाखच भरी थी, सीट में बैठे पिता के साथ बैठने की चाह बड़ी बेटी की आँख में साफ झलक रही थी, पर सीट खाली न थी । सीट खाली होते ही दूसरे मुसाफिर बैठ जाते, लंबे सफर की थकान उन सबके चेहरे से साफ दिख ख रही थी, बेटी का ध्यान पूरी तरह पिता पर था, थोड़ी दूर में सीट खाली हुई,हडबडाहट में पिता गोद में  बैठे पुत्र को लिए सीट बदलने की कोशिश कर रहे थे, कि धोती सीट में फँस गई थी। 
---- बेटी तुरंत आवाज लगाकर बोली---बाबु कुर्सी मा तोर धोती अरझ गे हवे,वोला छोडा़ के उठबे। 
आवाज से पिता सचेत हो एक ओर खिसक गए पीछे देखा बेटी अभी भी खडी़ है ,तभी थोड़ी दूर में सीट खाली हुई, बेटी झट बाबू के पास जा बैठी, पिता प्यार से उसके उलझे बालो में हाथ फेरते कह रहे थे-----नोनी तयँ मोर अतक ध्यान रखथस, मोला छोड़ के दूरिहाँ कभू झन जाबे, ले अपन भाई ल सम्हाल कह उसकी उनींदी आखों में एक रक्षा का भार दे दिया । पिता हल झपकी ले रहे थे, बेटी नन्हें हाथों से भाई के सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी कर रही थी ।