साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
"सूक्ष्म कांशी की यात्रा"
सभा मंच पर बैठे महानुभाव का परिचय करा दूं स्वामी जी ! श्वेत वस्त्र धारी, राजमुकुट से सुशोभित आत्मज्ञानी ,महर्षिजय महाराज-'देवोदास'हैं
देवोदास का नाम सुनते ही मैं भौचक्क हो गया । क्या मैं स्वप्न जगत में विचरण कर रहा हूं। इधर-उधर देखने लगा। सभी सत्य प्रतीत हो रहा था। मस्तिष्क पर जोर दिया। देवोदास तो ऋग्वेदीय राजा है। वे चंद्रवंशी है। इस कलिकाल में कहां?
मेरी स्थिति को गणपति महोदय भांप गए। वे मुझे इंगित करते हुए बोले--स्वामी जी! आप आश्चर्य न करें। आप अभी कुछ क्षण पहले ही अपना पार्थिव शरीर छोड़े हैं। अतएव पीछे के पांचों शरीर अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। यह स्वाभाविक गुण है। आप जानते हैं कि आत्मा अमर है। निष्पाप है। आत्म शरीर में रहने के लिए समय का बंधन नहीं है। आत्म शरीर को प्राप्त करने हेतु लोग बहुत तपस्या करते हैं। परंतु यह शरीर तप से नहीं प्राप्त होता है। यह तो गुरु अनुकंपा का परिणाम है। बस मनुष्य को परमात्मा की सृष्टि को विस्मयमूलक दृष्टि से देखना है। चूंकि वही परम शिल्पी है। उसकी प्रत्येक रचना किसी कारणवश परम सुंदर है। उसकी रचना को सम्मान देना, उसी को सम्मान देना है। बस मानव के अंदर परम शक्ति स्वत: स्फुरित हो उठेगी। फिर कभी समाप्त नहीं होगी।जो साधक इस छोटी सी तकनीक को गुरु से प्राप्त कर लेता है। वह विशाल परमात्मा के स्रोत से मिल जाता है।
गणपति जी पुन: अपने विषय पर लौटते हुए बोलना प्रारंभ किए। महाराज देवोदास के बगल में बैठी हुई उनकी पत्नी महारानी साहिबा है। विस्मय---स्वामी जी! यह ठीक है कि आत्मा ना स्त्रीलिंग है न पुलिंग है। यही है---आत्मिक मिलन। आत्मिक मिलन चिरस्थायी है। वह युगो-युगो तक बिना किसी चाह के प्रेम करती है। साथ-साथ रहती है। यही मिलन है---स्वामी जी आत्मा दास जी एवं मां बासमती जी का यही मिलन है। लक्ष्मी-नारायणा का यही मिलन है। शंकर-पार्वती का। उन्हीं का अवतरण है--सीता-राम, राधा-कृष्ण का। वे सदा के लिए मिले हैं। वह कैसे बिछुड़ेंगे । कोई रावण, इन्हें अलग नहीं कर सकता। यही है दिव्यलोक। यही है दिव्य शरीर।
मंच के मध्य में बैठी है--दिव्य गुणों से परिपूर्ण मां दुर्गा। इन्हें हम मां पार्वती, मां अन्नपूर्णा, के नाम से भी जानते हैं। मां ऊपर से कठोर है। अंदर से जल से भी तरल है। इनके नेत्रों से स्नेह, वक्ष से अमृतमयी प्रेम, हाथ से महा प्रसाद निरंतर निकलता रहता है। जिनके दर्शन कर हमारे जैसे पुत्र भी मां के प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। इनके बगल में बैठी है--इनकी बड़ी बहन मां गंगा। जो अपने पुत्रों पर कृपा कर करुणावश गंगा के रूप में बह चली है। इनका ह्रदय विशाल है। पुत्र इन्हें मल- मूत्र से सदैव गंदा करते रहते हैं। परंतु यह करुणा की अथाह-सागर है। उन्हें साफ कर सिंचित कर पालन-पोषण में लीन रहती है। जब आप एक दिन गत वर्ष अपने भक्तों के साथ यहां आए थे तब मां गंगा खड़ी होकर आप सभी का स्वागत की थी। आपने प्रणाम किया था। जिसे आप के कुछ शिष्यों ने (डॉ आचार्य नरेश कौशिक, आचार्य आशा उपाध्याय) देख लिया था। सामने बैठे हैं काशी नगरी की दिव्य आत्माएं। जो हजारों वर्षों से भगवान शिव की नगरी में रह रहे हैं। जिन का भरण-पोषण मां गंगा एवं दुर्गा करती आ रही है। स्वामी जी यह सत्य है कि इनके कृपा के बिना काशी में कोई नहीं रह सकता है। जिनके जन्मो जन्म का पुण्य उदय होता है--वही इस नगरी में प्रवेश कर पाता है। इस नगरी में रहकर भी जो आदमी सद्गुरु के शरण में नहीं जाता। आत्म पद को नहीं प्राप्त करता। उसे निश्चित रूप से माया ने भटका दिया है। माया अपनी त्रिगुण फास उसके गले में डाल दी है। मृत्यु के लिए एक ही फांस बहुत है। परंतु त्रिगुण फांस तो कबीर ने देख लिया। वह बोल उठे थे----
"माया महा ठगनी----हम जानी।
त्रिगुण फांस लिए कर डोले।
बोले मधुर बानी।।'"
कबीर पर गुरु अनुकंपा बरस रही थी। वह माया को और उसकी बानी तथा फांस को नजदीक से देख लिए थे। एवं माया उनकी दासी बन गई। अन्यथा सभी की मालिक माया ही बन कर बैठी है। इस नगर में भी अधिसंख्यक लोग रात-दिन माया के पीछे दौड़ रहे हैं। अंततोगत्वा वही माया उनके गले की फांसी बन जाती है।
जिस पर गुरु अनुकंपा होती है। उन्हें भगवान शिव शंकर के रूप में तारक मंत्र देकर अपने लोक में भेज देते हैं। काशी देवताओं की भी प्रिय नगरी है। यह भोग भूमि नहीं है। यह अनुकंपा, प्रसाद भूमि है। अतः यहां किया गया तप, जप, त्याग, दान या पाप अनंत गुना होकर लौटता है। यह भी सत्य है कि हमारी सूक्ष्मकाशीअभी विद्यमान है। जो भगवान भूतनाथ के त्रिशूल पर है। अर्थात इस काशी में माया त्रिगुण फांस का प्रवेश नहीं है। सत्-रज-तम तीनों फांस संत के लिए अहितकारी है।