छत्तीसगढ़ में मछली पालन को कृषि का दर्जा : समर्थन मूल्य तय नहीं, खुले बाजार में 10 % तक कमीशन का खेल
कोरबा में किसान मछली खुले बाजार में बेचने को विवश हैं. छत्तीसगढ़ सरकार ने मछली पालन को कृषि का दर्जा तो दे दिया, लेकिन इसकी बिक्री उचित मूल्य पर करने की व्यवस्था नहीं हुई है. इससे किसानों को उचित लाभ नहीं मिलता.
छत्तीसगढ़ सरकार ने मछली पालन को कृषि का दर्जा तो दे दिया, लेकिन इसकी बिक्री के लिए समर्थन मूल्य के निर्धारण की प्रक्रिया फिलहाल अधूरी है. इस कारण मछली किसान औने-पौने दामों में खुले बाजार में मछली बेचने को विवश हैं. आमतौर पर कृषि उत्पादन को सरकार द्वारा समर्थन मूल्य प्रदान किया जाता है. जैसा प्रावधान धान या दलहन की फसलों में है. लेकिन मछली उत्पादन में ऐसा अभी तक नहीं हुआ है. मछली को कैश क्रॉप कहा जाता है. वाहवाही लूटने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने मछली पालन को कृषि दर्जा देते हुए खेती की श्रेणी में तो ला दिया, लेकिन मछलियों की बिक्री उचित मूल्य पर करने की अब तक कोई व्यवस्था नहीं बनाई. इससे किसानों को उनकी मेहनत का उचित लाभ नहीं मिल पा रहा है.
किसान 6 महीने से लेकर डेढ़ साल तक के लिए मछलियां पालते हैं. तब उनका वजन बिक्री के लिए 2 किलोग्राम तक हो पाता है. इस दौरान किसान मछलियों को दाना देने से लेकर कई जतन करते हैं. जब मछलियां बिक्री के लिए तैयार हो जाती हैं तो इसके विक्रय की कोई व्यवस्था नहीं होती. मछली किसान खुले बाजार में ठेकेदार, बिचौलियों और व्यापारियों के पास ही इसे बेचने जाते हैं. उनके पास दूसरा विकल्प नहीं होता.
मछली पालक किसानों के सामने सबसे बड़ी मजबूरी मछलियों को स्टोर करने की होती है. किसान तालाब से मछली निकालकर तत्काल इसकी बिक्री के लिए मंडी पहुंचते हैं. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो मछलियां खराब हो जाएंगी. मछली किसानों के पास न तो कोल्ड स्टोरेज है, न ही इतनी बर्फ जिससे कि वह मछलियों को स्टोर करके रख सकें. इसलिए मछलियों को तुरंत बेचना उनकी सबसे बड़ी मजबूरी होती है. किसान जब मछली लेकर खुले बाजार पहुंचते हैं तो ठेकेदार नीलामी प्रक्रिया के अनुसार इसकी बोली लगाते हैं. यह नीलामी मछली की साइज और क्वालिटी पर निर्भर होती है. समान्यतः यह कीमत 100 से लेकर 150 रुपये के बीच होती है. जिस व्यापारी द्वारा नीलामी में सर्वाधिक बोली लगाई जाती है, किसान उसे ही मछली बेच देते हैं. इस बोली की कुल रकम की राशि में से भी 5 से 10 फीसदी तक की कटौती हो जाती है. ठेकेदार और व्यापारी यह कमीशन रखरखाव और अपने कर्मचारियों को वेतन के तौर पर काटते हैं. फिर यहां से वह मछली की बिक्री चिल्लर व्यापारियों को होती है.
मछली के थोक व्यापारियों ने बताया कि तालाब से मछली लेकर किसान जब यहां आते हैं तो उनकी मछलियों के दाम निर्धारण के लिए बोली लगती है. बोली के आधार पर ही मछली के दाम तय होते हैं. दाम निर्धारण की और कोई प्रक्रिया नहीं है. बात अगर कोरबा जिले की करें तो यहां आंध्र प्रदेश और विशाखापट्टनम से मछलियां आ रही हैं. ये मछलियां शहर और उपनगरीय क्षेत्रों में बेची जाती हैं. जिला स्तर पर मछलियों की जितनी डिमांड है, उतनी पैदावार नहीं है. जितने भी किसान मंडी तक आते हैं, उनकी मछलियों को हाथों-हाथ खरीद लिया जाता है.
वर्तमान में जिले में 45 मछुआ सहकारी समिति कार्य कर रही हैं. इनके अंतर्गत करीब 8 हजार मछली पालक इस कार्य में लगे हुए हैं. इसके बावजूद केवल कोरबा जिले की डिमांड के अनुसार ही मछलियों का उत्पादन नहीं हो पा रहा है. इसका एक बड़ा कारण सरकार द्वारा समर्थन मूल्य का निर्धारण नहीं कर पाना भी है. किसानों को औने-पौने दामों में मछलियां खुले बाजार में बेचनी पड़ रही है. इससे वह मछली पालन के क्षेत्र में आने से झिझक भी रहे हैं. सरकार एक तरफ इसे बढ़ावा देने की बात करती है, तो दूसरी तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. इससे मछली पलकों की संख्या भी घट रही है.
वर्तमान में जिले में करीब 45 मछुवा सहकारी समिति के अलावा 615 महिला स्व सहायता समूह मछली पालन का काम कर रही हैं. कोरबा में 41 बड़े जलाशय हैं. इनका रकबा 5 एकड़ से अधिक है. जलाशय और तालाबों का पंचायत स्तर पर ही आवंटन होता है. अब किसी भी व्यक्ति विशेष को तालाबों का आवंटन सरकार नहीं करती. यह मछुआ सहकारी समिति या महिला स्व सहायता समूह को जिला, जनपद या पंचायत से पट्टे पर दिया जाता है. इसकी राशि सरकार लेती है.
फैक्ट फाइल
- इस वर्ष 2 करोड़ 14 लाख स्पान बीज का उत्पादन.
- एक करोड़ 60 लाख स्टैंडर्ड मछली बीज का उत्पादन.
- जिले में 45 मछुआ सहकारी समिति कार्यरत.
- मछली पालन में जुटे हैं 615 महिला स्व सहायता समूह.
- जिले में 41 बड़े जलाशय.
- ग्राम पंचायतों में 4261 तालाब.
- केज कल्चर की 1000 यूनिट मौजूद.