साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेशअध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना
मैंने सम्बोधित किया —मेरे प्रिय आत्मन! आप सभी कारण शरीर आत्म शरीरी है । आप की चाह समाप्त हो गई है। आप योग सिद्ध है। इच्छाशक्ति का पूरा विकास ही योग है। मन शक्ति का पूर्ण विकास प्रकृष्ट विज्ञान है। योग बल से भी सृष्टि होती है। विज्ञान बल से भी सृजन होता है। आज संसार में जिस विज्ञान की उन्नति हो रही है —उसकी मूल में इच्छा है। मन शक्तिहीन हो गया है। वासना के पंक में फंस गया है। अज्ञानी हो गया है। जिससे भौतिक विज्ञान विनाश का कारण बनता जा रहा है।
आत्मा के साथ मन सदैव बना रहता है। मन का प्रतिबिम्ब आत्मा पर सदा बना रहता है। इससे आत्मा मन के अनुरूप अपने को समझने लगती है। मन अपने को आत्मा से श्रेष्ठ समझने का कुप्रयास कर बैठता है। आत्मा की यही धारणा बंधन का कारण हो जाता है। जिससे मन इसे माया में बांधने में सफल हो जाता है। जैसे ही आप गुरु की शरण में आ जाते हैं। श्रद्धा से अपने को समर्पित करते हैं। वह शरीर,मन, आत्मा का संबंध समझा देता है। वह ज्ञान का चक्षु खोल कर दिखाता है कि आप शुद्ध चैतन्य आत्मा हैं। मन आपका दास है। जैसे ही आप अपने आत्मपद में स्थित होता है। सिद्धियों के स्वामी बन जाते हैं।
यही है आत्म साक्षात्कार। आप परम वैराग्य को उपलब्ध हो जाते हैं। जगत का नश्वरता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। मन की सत्ता से जब ब्रह्म का योग गिर जाता है तब वह परम ब्रह्म हो जाता है। मन से जैसे ही ब्रह्म का योग होता है—वही संसार कहलाता है। जैसे ही साधक गुरु मूर्ति एवं गुरुद्वारा प्रदत्त शब्द में लग जाता है। उसकी मलीनता गिर जाती है।
मन का स्वभाव है मलीनता। वह कभी—भी वासना से मुक्त नहीं होता है। इसलिए उसे शरीर की आवश्यकता होती है। मन का स्वभाव ही वासनात्मक है। इसी से बार-बार शरीर ग्रहण करना पड़ता है। मृत्यु की मूर्च्छा के पहले जिस व्यक्ति के चेतन मन में वासना का वेग प्रबल रहता है। मरते समय चेतन मन अचेतन मन में विलीन हो जाता है। वही मन आत्मा के साथ बाहर निकल जाता है। ऐसे ही व्यक्ति प्रेत योनि में चला जाता है। मन भोग चाहता है। परंतु उसके साथ शरीर नहीं है। मन की वासना शरीर के द्वारा ही तृप्त होती है। क्योंकि शरीर के साथ ही इन्द्रयां भी है। वासना भोगने के लिए इन्द्रियों की भी आवश्यकता है। वासना ग्रस्त मन पागलों की तरह परिभ्रमण करने लगता है। एक तरफ वासना का प्रबल वेग एवं दूसरी तरफ शरीर का अभाव, उसे अत्यंत कष्टदायक मालूम होता है। ऐसी स्थिति में वह अपने अनुकूल शरीर खोजता है। जैसे ही अपने अनुकूल शरीर पाता है। तत्क्षण उसमें प्रवेश कर जाता है। जिस व्यक्ति में यह प्रवेश करता है। उस दुर्बल मन का, शरीर का, इन्द्रियों का पूर्ण मालिक बन जाता है। इसे ही प्रेतबाधा कहते हैं। वह उस व्यक्ति से, शरीर से अपनी वासना पूर्ति करता है। वह सगा-संबंधी, रिश्तेदारी सभी कुछ भूलकर मात्र वासना की पूर्ति करता है। ओझा इसका निवारण उसकी वासना को पूर्ति कर ही करता है। चूंकी ओझा भी जिंदा प्रेत है। या ऐसा कहा जाए कि वह शरीर धारी प्रेत आत्मा है।
भौतिक शरीर अत्यंत मूल्यवान है। जैसे ही साधारण व्यक्ति मरने के 11, 45, 365 दिन के अंदर अपना मां-बाप का खोज कर शरीर धारण कर ही लेता है। वासनात्मक शरीर ही प्रेतात्मा है। जब वह प्राणमय शरीर धारण करती है तब सूक्ष्मात्मा और जब मनोमय शरीर धारण करती है तब उसे देवात्मा कहते हैं। हमारा जैसा विचार रहता है। मनन शक्ति रहता है, हम अंतरिक्ष से वैसे ही आत्मा से संबंध स्थापित करते हैं। जिससे बुरा आदमी अति बुरा बन जाता है।नेक आदमी देवत्व को प्राप्त कर लेता है।
अष्टांग योग का छ: योग साधक अपने पराक्रम से कर लेता है। सातवां ध्यान गुरु अनुकंपा का परिणाम है। समाधि तो फल है। समाधि जगत का अंत है। परम सत्य का आरंभ है। मन मरता नहीं है। वह पूर्णरूपेण करुणा में बदल जाता है। परम सत्ता ही पूर्ण चेतन है। पूर्ण करुणा+परम चैतन्य=समाधि। समाधि के गर्भ से ही आत्मा निकलती है। समाधि एक परम अनुभव है। वह परमआनंद है। इसका अनुभव तब होता है जब आप समाधि से लौटते हैं। आप स्मरण करते हैं, जीवन की किसी गहन स्थिति की अनुभूति पूर्ण उपलब्धि थी। आपका अस्तित्व मन से जुड़ता है। तब आप येन-केन प्रकरेण समाधि की व्याख्या करते हैं। जो उपयुक्त व्याख्या नहीं कही जा सकती है। इसे तो गुरु अनुकंपा से प्राप्त किया जा सकता है। कुछ दिग्भ्रमित विद्याव्यसनी कहते हैं कि सभी आत्म-स्वरूप ही है। फिर कौन किसकों प्रणाम करें? विद्यार्थी एक दिन उच्चतम अधिकारी बन जाता है, फिर भी अपने पूर्व के बचपन के शिक्षा गुरु को आदर देता हैं। स्नेह पूर्वक प्रणाम करता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है। साधारणत: मृत्यु के अनंतर यही जीवात्मा अपने शरीर से निकलकर स्वकर्मानुसार अध,ऊर्ध्व अथवा तिर्यक गति प्राप्त करता है। वह मातृगर्भ में प्रवेश करता हैं। यही संसार है। उपासक का आत्म है। उपास्य भी आत्मा है। परंतु सद्गुरु प्रभाव से उपासक आत्मा में कुछ विलक्षण शक्ति का संचार होता है। यह गुरु प्रदत्त शक्ति पात्रतानुसार उपासक में शक्ति- तेज विशेष संपन्न कर उसके प्रारब्भ कर्मों को विछिन्न करता है। यह आध्यात्मिक तेज गुरु की स्वाभाविक तेज का ही परिणाम है। मैं तो उपासक का सहस्त्रार खोलकर देवास्त्र दिव्यास्त्रों के साथ अपने ब्रह्म तेज को भर देता हूं। जिससे साधक समयानुसार दिव्यता की तरफ निरंतर आगे बढ़ता जाता है। यही दीक्षा है।
क्रमशः-----