साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेशअध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
आश्रम की गतिविधियों में व्यस्त रहना मेरा स्वभाव है। चूंकि एक दिन मैंने गुरुदेव से कहा था कि आश्रम के कार्य के अधिकता से ध्यान के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। वे आश्चर्यजनक ढंग से मेरे तरफ देखें। बार-बार देखते जा रहे थे। मैं खामोश था। अचानक वे बोल पड़े--"यह तुम्हारा उत्तर नहीं हो सकता। तुम तो कार्य करने हेतु ही आए हो। तुम्हारा आगमन पर हित के लिए ही हुआ है। तुम कार्य से कैसे थक गए? कार्य तुमसे थक जाएगा। जो गुरु गोविंद का काम समझ कर कार्य करता है, उसे करने से न थकान होता है, न बंधन में आबद्ध होता है। वह पूजा और कर्म साथ-साथ करता है। इससे अध्यात्मिक, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक विकास एक साथ होता है। बस अपने को उसके चरणों में समर्पित कर देना है। फिर तुम यंत्र हो गए। उसे कार्य करने दो। जो करेगा--सुंदर, अति सुंदरम।"यही सोच रहा था। आज के दिन सभी कार्य से भाग रहे हैं। दिल्ली आश्रम में सेवा के अवसर का सदुपयोग न करने को परिश्रम समझते हैं। नौकर के तरह हीन भावना से ग्रसित हैं। अमुक कार्य मैं नहीं कर सकता, इतना ही घंटा करूंगा। जैसे थके-हारे सिपाही की तरह समय काट रहे हो। मैं 1 माह के वाराणसी प्रवास के बाद दिल्ली आश्रम में लौटा हूं। सर्वत्र गंदगी एवं जंगली घासों का साम्राज्य फैला था। जो लोग रह रहे थे, वे मात्र अपने कमरे में रहकर किसी तरह जीवन यापन कर रहे थे। उन्हें पूजा-पाठ, सेवा सफाई बोझ प्रतीत हो रहा था। हर समय अनर्गल बातों के प्रलाप एवं अर्थ के चक्कर में कौए-गिद्ध की तरह दृष्टिपात कर रहे थे। मैं दिनांक 16 -6 -03 को आश्रम में आया। यह देखकर दुखी हुआ। विनोद जी भी अपने शादी में गए हुए थे। मैं उसके साथ आश्रम के कार्य में लग गया। आज दिनांक ;24- 06 -03 को कुछ सदस्यों को स्कूल के संबंध में कुछ को आश्रम के संबंध में दिशा निर्देश दे रहा था। वे लोग पूर्व की भांति मौन होकर सुन रहे थे। सदा सुन लेते, फिर भी अपने मन की ही करते। दिल्ली महा नगरी है। यह राजनीति की राजधानी है। कल-बल-छल से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की इसमें कौशल है। किसी तरह धन, बल एकत्र करने की कला भी लोगों में भरी हुई है। जिसके हवा से आज का जन्मा बच्चा भी अछूता नहीं रह सकता। फिर चाहे शिक्षक हो या साधु बाबा।
मैं खिन्न होकर कुणाल स्वामी को डांटा तथा भोजन के पश्चात मंदिर में आ गया। जहां कुछ लोग मेरा इंतजार कर रहे थे। दिल्ली में मैं जब से आया हूं--तब से लेकर आज तक कोई भी व्यक्ति परमात्मा के लिए नहीं मिलने आया है। कोई पद-प्रतिष्ठा के लिए, तो कोई दुकान, व्यापार के लिए, तो कोई पुत्र-पौत्र के लिए, तो कोई शादी-विवाह के लिए, तो कोई कल-कारखाना चलाने के लिए। संभवतः गुरुजी को इन्हीं कार्यों का मशीन समझ लेते हैं। फिर वादा करते हैं कि गुरुदेव मेरा अमुक कार्य हो जाने पर अवश्य भजन करूंगा। दयावश, करुणावश कुछ लोगों की याचिका गोविंद के यहां दबाव के साथ भेज दिया। उनका कार्य सफल हुआ। फिर क्या वे उल्टे हो गए। पूजा-पाठ-ध्यान से बचने के लिए बहाना खोज लिए, वे तो कुछ जानते ही नहीं। मेरा कार्य तो मेरे भाग्य एवं परिश्रम से संपन्न हुआ। वे निंदक बन गए। जिन का कार्य उसके भाग्य पर छोड़ दिया, वे डूब गए। वे कहने लगे--आपने क्या किया? आपके यहां आने से मैं डूब गया। दोनों तरफ से उपहास सुनने को मिलता।
घोर अंधेरे में जैसे कभी-कोई तारा चमक जाता वैसे ही एक आध व्यक्ति साधना, परमात्मा के संबंध में कुछ बातें करते। मैं हिम्मत इकट्ठा करता कि हां मेरे भी ग्राहक हैं। परंतु आश्रम का कार्य कैसे चलता, यह कोई नहीं पूछता। कभी-कभी फाका भी मारना पड़ता। मैं सोचता हे परमात्मा! पद-प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति सभी कुछ तो तुमने हमें प्रदान किया था। फिर क्या जरूरत था---उसे छोड़कर यहां आने का। जो कुछ पैसे थे, उसे आश्रम की गतिविधि में लगा दिए। अब तो कुछ है भी नहीं। मुझे महाराज बनाकर भेजा है। फिर किसी से भिक्षा क्यों मांगू। लोग कुछ रुपए पैर पर रखते, दूसरे क्षण बदले में कुबेर का खजाना मांग बैठते। मन झन झना जाता, क्या यह भिक्षुको की नगरी है। क्या होगा मेरे राम का? क्या होगा मेरे सीता एवं हनुमान का? क्या होगा मेरा सद्विप्र समाज सेवा का? क्या अपने शैशवावस्था मैं ही दम तोड़ देगा? मस्तिष्क पर जोर पड़ता जा रहा था। तभी विनोद जी ने आकर तंद्रा भंग किया। गुरुदेव सभी लोग रो रहे हैं। आपके डांट से सभी खिन्न हो गए हैं। आज ही कुणाल के बड़े भाई का जन्मदिन है। आज ही उन्हें मृत्यु को उपलब्ध हुए एक वर्ष होने जा रहा है। सभी उनके याद में तड़प रहे हैं। मैंने उससे कहा कि--इसमें मैं क्या कर सकता हूं? जिसको सेवा, सुमिरण, सत्संग में मेरे साथ समर्पण भाव से रहना हो, वे रह सकते हैं। अन्यथा सभी अपने-अपने गंतव्य के लिए स्वतंत्र हैं। तुम सभी कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हो। मैं अपने गंतव्य पर निकल चुका हूं। अकेले ही आया हूं। अकेले यात्रा चालू रखूंगा।