साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
उत्तम जिज्ञासु, साधक, गुरु भक्त की संख्या सदैव नगण्य होती है। कर्मकांड देवी-देवता के उपासकों की संख्या सदैव से ज्यादा होता है। ये कर्मी उपासक भोगासक्त,मलिनअंत:करण वाले मूढ़ होने से चंचल और बेसमझ होते हैं। भैरव जी - हे प्रभु! आपकी वाणी सुनकर हृदय पट खुल गया। मेरा मन साफ हो गया। मेरा भटकाव रुक गया। मानव शरीर में ही गुरुत्व अवतरित होता है। इसी में बुद्धत्व, रामत्व, कृष्णत्व का फूल खिलता है। पूर्णत्व का फल लगता
है। यही कारण है कि जब-जब ये फूल इस पृथ्वी पर खिले हैं देवतागण इनकी स्तुति-गुणगान किए हैं। यह भी सत्य है कि उनकी चढ़ती कला देखकर उनके
मार्ग में अवरोध भी उत्पन्न किए हैं। परंतु पूर्णत्व पाते ही उनकी स्तुति करने से भी
नहीं भागे हैं।
फूल पृथ्वी पर खिलता है। उसका सुगंध और कीर्ति स्वर्ग लोक में पहले पहुंचती है। संसारी लोग उस पूर्ण से भी संसार की ही शूद्र कामना कर अपना एवं उस विराट का समय बर्बाद करते हैं। वे तुच्छ, शूद्र एवं निम्नतम योनि प्राप्त करते हैं। देवता शीघ्र ही पहचान लेते हैं। इसलिए उनके मुंह से निकली वाणी को ब्रह्म वाणी समझकर तुरंत पूरा करते हैं। उसे पूर्ण कर अपने को अहोभागी समझते हैं। इससे उनके भी पुण्य में वृद्धि होती है।
हे प्रभु! हम लोग सत्संग में आज समय का भान भूल गए। यदि आज आपको अपनी आश्रम गतिविधि संबंधी सांसारिक कार्य नहीं हो तो हम लोग काशी के लिए प्रस्थान करें। यदि समयाभाव हो तो कल चलेंगे।
नहीं भैरवजी ! ऐसा नहीं। मैं दो ही दशा में अपना कक्ष दो-तीन या हफ्ता दिन के लिए बंद करता हूं। पहला- संसारी लोगों के मध्य कार्य करते-करते थक जाता हूं। उन्हें संसार देते-देते थक जाता हूं। फिर भी उनकी कामनाएं शान्त नहीं होती। मात्र वे बहाना करते हैं कि अमुक कार्य होने पर मैं परमात्मा का भजन करूंगा, उन्हें उनकी कामना पूर्ण करते-करते भी थक जाता हूं। उनकी कामनाओं में निरंतर वृद्धि होते जाती है। जिसकी सारी कामनाएं पूर्ण कर दी, उन्हें याद 'दिलाता कि अब तो हरि भजन कर। मेरे सद्विप्र समाज का कार्य कर। तब वे मुझे वैसे ही त्याग देते हैं, जैसे दूध से मक्खी को त्यागा जाता है। घूम-घूमकर मेरी निन्दा करने लगते हैं। अपनी पुरुषार्थ की चर्चाएं करने लगते हैं। तब मुझे क्षणिक दुःख होता है कि देखो यह बेचारा पुनः उस दलदल की तरफ उन्मुख हो गया। जहां से उसका यह भी जन्म बेकार हो जाएगा। पता नहीं आने वाला कितने जन्मों तक मेढक बनकर सर्प से भागते रहेगा। तब मैं गुफा बंद कर लेता हूं। फिर आत्मस्थ हो बाहरी विकार भूल जाता हूं। फिर नये उत्साह, नये जोश से नये कार्यों में लग जाता हूं।
दूसरा जब मेरी इच्छा होती है कि आप जैसे देवताओं से सत्संग करू या देवलोक, स्वर्गलोक, पितृलोक, गंधर्वलोक, कर्मलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक, विष्णु लोक, गोलोक, निरंजन लोक या सत् लोक की यात्रा करूं तब अपना कक्ष साधकों को यह बताकर बंद कर लेता है कि मैं अमुक दिन को इतने समय निकलूंगा। इस बीच मैं संकल्पित कार्यों को कर लेता हूं। हां अब मैं सांसारिक कार्यों के लिए संकल्प लेना छोड़ दिया हूं। पूर्व संकल्पों को ही भोगकर क्षय करना चाहता हूं।
भैरव जी हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए बोले तब हम लोग प्रस्थान कर सकते हैं। आप अपने पार्थिव शरीर को यहीं छोड़ दें। मेरे गण इसकी रखवाली करेंगे। अन्यथा मृतक शरीर समझकर कभी-कभी असिद्ध आत्माएं या साधना जगत् में भटकी आत्माएं या शत्रु भावना से अभिप्रेरित आत्माएं भी इस शरीर में प्रवेश कर सकती है। जो आपके आत्मा को इसमें प्रवेश से वंचित कर देंगी। संसार में आपके रूप में ही आपके विरुद्ध षड्यंत्र करेंगी। जो न मेरे लिए उचित होगा न आपके लिए आप जैसे मनीषियों के शरीर की रक्षा करना भी हमारा कर्तव्य होता है।
आप अब इस शरीर रूपी मंदिर से बाहर निकले। मैं सावधानीपूर्वक मुंह ऊपर करके लेट गया। कुटः स्थ से नीचे उतरा। मूलाधार चक्र में पहुंच गया। पुनः क्रमशः ऊपर उठने लगा। हर चक्रों पर कुछ संकल्पित कर आगे बढ़ता गया। आज्ञा चक्र पर लंगर डाल दिया। गुरु पर्वत पर आकर प्रार्थना कर खास समय तक बाहर जाने का आदेश मांगा। गुरुदेव प्रसन्न मुद्रा में द्वार बन गए। मैं सहस्त्रार पर आया। फिर ब्रह्म विद्या द्वारा ब्रह्मारंद्र द्वारा बाहर निकल गया। सूक्ष्म शरीर जो स्वर्ण आभा से युक्त था। उसे भी उसी कमरे में छोड़ दिया। जिससे पार्थिव शरीर पर कान्ति बनी रही। कारण शरीर में बाहर निकला। देखते ही सद्गुरु देव की समाधि पर पहुंचा। गुरुदेव भी अति आभायुक्त शरीर में प्रकट होकर आशीर्वाद दिए। माता जी का आशीर्वाद लिया। तब सद्गुरु कंबीर साहब का आशीर्वाद ग्रहण किया। मैं सदैव से गुरु की ही वंदना की।
देखते ही देखते मैं भैरव जी के साथ गंगा तट पर पहुंच गया। भैरव जी बोले, "देखो स्वामीजी ! यह अभी की पार्थिव काशी। राजघाट के पास ले गए। पुनः कुछ कदम उत्तर चले। एक पत्थर पर पैर रखे। सहसा पत्थर द्वार बन गया, उसमें प्रवेश किए। एक विशाल फाटक मिला। जो विभिन्न प्रकार के प्रकाशों को बिखेर रहा था। विभिन्न प्रकार के मणियों से आच्छादित था। मैं अविचल खड़ा होकर उसकी सुंदरता एवं कारीगरी देखता रहा। तभी आवाज आई क्या देख रहे हैं स्वामीजी ?
यही काशी का मुख्य द्वार है। इसके मध्य में देखें। विभिन्न प्रकार की चित्रकारी की गई थी। ये चित्र नहीं है। ये दृश्य हैं काशी के कौन कहां है? उसी का पूर्ण विवरण है। यही है विश्वकर्मा की कीर्ति । "
देखिए! हम लोग यहां खड़े हैं। द्वार के पीछे यह विशाल भवन मेरा प्रधान कार्यालय है। यह गणेश पुरी है। यह मंदिर सूर्य का निवास स्थल है। यह कार्तिक स्वामी का मंदिर। ये है— मां अन्नपूर्णा । ये है मध्य में भगवान शंकर का मंदिर। इसके पीछे इनका विशाल भवन है, जिसमें इनके गण, पार्षद लोग हैं। इधर देखिए, उत्तर दिशा में गण तपनिष्ठ हैं। अब आप बताएं हम लोग किधर से यात्रा करें। मुख्य द्वार से ही जिसको जिधर जाना होता है, उसे उस स्थान के गण के साथ भेज दिया जाता है। सभी लोक स्वशासित, स्वपोषित है। सभी अपने कार्य में लगे हैं। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं है। सभी अपने कर्मों में लीन है। सभी का हर कार्य भगवान शिव के यहां स्वयं ज्ञात होते रहता है। क्षण मात्र में हर एक का मौन संदेश हर लोक में पहुंचता रहता है। ऊपर के लोकों से नीचे के लोकों में संदेश पहुंचते रहते हैं। फिर भी वह परम पुरुष सभी लोकों से न्यारा है। उसकी आज्ञा एवं उपस्थिति का भान महादेव को होती रहती है। पूरा विश्व ब्रह्माण्ड दृश्य अदृश्य उसी के इशारे पर संचालित है।
इन लोकों की गतिविधियां तब चिंतित एवं तेज हो जाती हैं जब पृथ्वी पर का मानव एक-दूसरे के संसार पर तुल जाते हैं। पृथ्वी को रक्तरंजित करने लगते हैं। परम पुरुष की कृति को तोड़ने लगते हैं। तब यह लोक कुछ विशेष क्रियाशील होता है। इन्हें भेजा गया कि अपने स्वकर्मों को करके परम पद को प्राप्त करेगा। समय के सद्गुरु के शरण में जाकर अपने जन्मों जन्म के कलमश को धो डालेगा। यहां यह जन्म भी बर्बाद कर भविष्य के जन्मों को भी बन्धक बना रहा है। खैर! आप किधर चलेंगे। एक-एक जगह एक दिन का पूरा समय लग सकता है।
मैंने कहा हे भैरवजी! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में मैं इन स्थानों का परिभ्रमण किया हूं। आप स्वयं उचित दिशा में स्थान में मुझे ले चलें। आप यहां के क्षेत्रपाल है।
आप सबसे पहले भगवान भूतनाथ के आश्रम में चले। उनसे मिलकर हम लोग अन्य स्थानों पर चलेंगे।