हृदय हूक से भरा समंदर*

डाॅ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़

हृदय हूक से भरा समंदर*

हृदय हूक से भरा समंदर* 

हृदय हूक से भरा समंदर
ज्वाल मुखी-सा फूट पड़े
तप्त धरा कर बहता लावा
काल रात्रि सम टूट पड़े ।

तरुणाई जब भी मुरझाई
चुप रहने को बाध्य करे
घूर भयातुर सहमी आँखे
मूक दर्शक-सी प्रश्न  करे 
गर अपराध स्त्री है होना
कर त्रिशूल धर छूट पड़े।

 
लोल-लहर संघर्षी नैंया
निर्भरता पतवार बने
संग चले मन खेवनहारा
पंथ सुगम साकार बने 
तूफानों से लड़ते-लड़ते 
कल पुर्जे सब बूट पड़ें ।

आज हुआ लाचार बुढ़ापा 
बेघर फिरता रोटी को
यौवन कुचला सरे-आम अब 
नोच रहे नित बोटी को
त्रस्त हुई चीत्कार तड़प फिर 
कितने टुकड़े खूट पड़ें ।