साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

 हे प्रभु! अब मुझे आदेश दें-मैं स्वधाम को जाना चाहता हूं।"

"तुम्हारा धाम कहां है?" "मैं कुबेर पुरी में रहता था। वही मेरा धाम है। "

मैंने कहा, "हे यक्ष तुम्हारा कुबेर पुरी मैं भी घूमना चाहता हूं। यक्ष - "हे प्रभु! आप तो बहुत बार घूमे हैं। फिर भी आपका स्वागत है। आप बद्रीनाथ से ऊपर व्यास गुफा से आगे भीम पुल पार कर सहस्त्रधारा पहुंच जाएं। मैं वहां इसी रूप में मिलूंगा। वहां से मैं आपको लेकर कुबेर पुरी चलूंगा। हमारे राजा कुबेर भी आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे।"

'अच्छा तो विलम्ब हो रहा है- तुम मेरा प्रसाद ग्रहण करो एवं प्रस्थान करो।" मैं मुड़कर आश्रम से मिष्ठान का प्रसाद दिया। वह उसे लेकर अपने मस्तक पर रखा फिर मुंह में रख लिया। वह साष्टांग प्रणाम कर जाने को उद्यत हुआ।

मैंने पूछा- "यक्ष जी! यह आपका सर्प का शरीर क्या होगा ?" "हे प्रभु यदि यह आपके हाथों ही समाधि को प्राप्त कर लेंगे तब धन्य हो जाता। इतना कहकर वह अंतर्ध्यान हो गया।""

मैं फावड़ा निकालकर अपने आश्रम के चारदीवार के पूरब जाकर थोड़ा गड्ढा खोदा एवं उस सर्प को गाड़ दिया। एक अगरबत्ती जलाकर जलांजलि भी दिया। अपने आश्रम में आकर स्वप्नवत संसार को देख रहा था। तभी कुछ भक्तों का आश्रम में आगमन शुरू हो गया।

यह दृश्य मेरे आंखों के सामने से घूम रहा था। पूरे एक हफ्ता मैं अन्य मनस्क था। फिर एक रात्रि मैं उठा एवं सोचने लगा। सर्प-यक्ष-प्रेत-भूतादि सभी यहीं हैं। मुझे कुबेरपुरी चलना चाहिए। कैसे चलें ? हिमालय से मेरा प्रेम है। बहुत सोच- समझकर उस रात्रि मैं स्थिर हो गया।।
   अमावस्या की रात्रि 8 बजे ही अमावस्या संबंधी कार्यक्रम निपटा लिया। नौ बजे मैं अपनी गुफा में चला गया। फिर गुरु जी का ध्यान कर। अपने स्वरूप में लोन हो गया। शरीर से बाहर निकल आया। एक बार आश्रम का निरीक्षण किया। फिर बद्रीनाथ का ध्यान किया। देखते ही देखते आकाश मंडल में उड़ चला। वहां प्रकाश पूर्ण मार्ग था। मुझे शीतलता की अनुभूति हुई। नीचे उतरा-यही बद्रीनाथ है। यहां गर्मकुण्ड में स्नान किया। बद्री विशाल का दर्शन किया। फिर अपने गंतव्य स्थल पर पहुंच गया।

पांच व्यक्ति खड़े थे। सभी राजऋषि प्रतीत हो रहे थे। एक व्यक्ति आगे बढ़कर कुबेर कमल पुष्प का हमें माला पहनाया एवं झुककर स्वागत किया। सभी लोग उन्हीं का अनुगमन किए। मैं सहसा उन्हें पहचान गया। आप हैं यक्ष जी। वे बोले, हम सभी यक्ष ही हैं। मैं 'बीरमणी' यक्ष हूं। यहां से हमारा क्षेत्र है। हम लोग कल से आपका इंतजार कर रहे थे। वहां का वातावरण अति मोहक था। दूर-दूर चौड़ी-चौड़ी सड़कें। सड़क के अंदर से ही प्रकाश निकल रहा था। दोनों तरफ फल-फूल से लदे वृक्ष । रंग-बिरंगे वृक्ष लताएं, पुष्प। क्या मनोहर दृश्य ? मैंने पूरणबीरमणी जी आप इस स्वर्ग सुख को छोड़कर कैसे नरक भोग रहे थे।" वे बोले-" प्रभु ! कोई भोगना नहीं चाहता है। सभी अपने ही कर्मों का फल

है। मैं अपने रूप, गुण, उच्च कर्मों के अहंकार से भर गया था। फिर ऋषि श्राप

बहाना बन गया। आपके द्वारा उद्धार हुआ। मैं स्वधाम पहुंच गया। ये सभी मेरे मित्र

हैं। मुझसे मिलकर ये अति प्रसन्न हैं। इतने में कुछ सुन्दरियों का समूह सामने ही

पुष्प माला आरती का थाल लिए मिली। सभी ने झुककर अभिवादन किया। रोली

लगाकर आरती उतारी। मालूम हो रहा था कि चन्द्र, तारा ही सुंदर युवतियों के रूप में सामने आई हैं। सभी के चेहरे पर मधुर मुस्कान। वीरमणी ने कहा-प्रभु ये है मेरी पत्नी नलिनी। यह है मेरी पुत्र- कुमुदनी।" मैंने कहा- " यक्ष भगवान ने क्या सुंदरता रची है। पृथ्वी पर के लोग तन मन

से कितने कुरूप हैं। स्वार्थी हैं। कितनी गंदगी में रहते हैं। यहां से तुलना करने पर पृथ्वी ही नरक है।" यक्ष - "नहीं, प्रभु ऐसा नहीं आप भी तो वही हैं। हम लोगों की योनि में

किए गए कर्मों को मात्र भोगना है। भोग समाप्त होने पर पुनः अधोयोनि में ही गिरना

है। मानव योनि ऐसा युग्म है जिससे व्यक्ति भगवन्ता को प्राप्त कर सकता है या

अधोगति में गिर सकते हैं।"

मैं आगे बढ़ा- झरना, तालाब, नदी मिल रहे थे मानों ये जल नहीं बल्कि दूध, दही, शहद की नदी बह रही है। मकान बने थे। सभी मंदिरनुमा ज्ञात हो रहे थे। सभी के ऊपर गगन चुम्बी स्वर्णमणी कलश लगे थे। बहुमंजिला इमारतें नजर आ रही थी। सभी स्वप्रकाशित थी। मैं एक कक्ष में विराजमान हुआ। वह कक्ष राज-पुरुष का कक्ष प्रतीत हो रहा था। बड़ा-सा पलंग जिस पर मखमल की श्वेत चादर बिछी थी। उस पलंग पर

स्वर्ण की कलाकारी की गई थी। ऐसा शीशा लगा था कि उसमें दूसरा नहीं दिखाई

देता सर्वत्र अपना ही चेहरा दिखाई देता। दूसरे कक्ष में स्वर्ण राज सिंहासन लगा

था। वहां मुझे ले गए।

वीर मणि ने मेरा हाथ पकड़कर उस राजसिंहासन पर बैठने को दबाव दिया। मैं उस पर बैठ गया। बैठते ही ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं एक फुट अंदर चला गया। गद्देदार, मुलायम, अति शुभ्र उनकी लड़की स्वर्ण थाल में मेरा पद प्रच्छालन । किया। उस जल से पैर ही शीतल नहीं हुआ बल्कि तन मन भी शीतल हो गया। कुछ देर तक आरती चलती रही। फिर सामने स्वतः चलकर एक टेबुल आ गया, जिस पर नाश्ता, भोजन का विभिन्न प्रकार का मिष्ठान्न, व्यंजन, खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ रखा था। मध्य में एक भाग धीरे-धीरे घूम रहा था। जिस वस्तु को निकालने की इच्छा होती वह वहीं रुक जाती। फिर वह चक्र के तरह अपने स्थान पर गतिशील हो जाता।

मैं कुछ मिष्ठान्न, फल, कंद-मूल, पेय, खाद्य निकाल निकालकर स्वर्ण पात्र में खाया। उन्हें खाते ही ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे-जैसे मुंह से गर्दन, छाती, पेट में आता, वैसे-वैसे शरीर ऊर्जा से भर जाता। वे खाद्य शरीर में उतरते भी दिखाई पड़ते। मानो एक्स-रे मशीन से गुजर रही हो वहां खुशी का माहौल था। मेरे सम्मान में 'वीर मणिक' कुछ सांस्कृतिक नृत्य, कुछ भजन, कुछ स्वागत प्रवचन का प्रबन्ध किए थे। मैं सभी कुछ देखता रहा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ब्रह्मा स्वयं सारे दृश्यों को बनाकर स्वयं उसे करा रहे हैं। सभी कुछ सुंदर अति सुंदर ।

मैं वीर मणिक से अन्य स्थान देखने के साथ यक्षपति कुबेर से मिलने की इच्छा व्यक्ति की। वे कहे फिर आपका सारा कार्यक्रम निर्धारित है। हम उस विशाल कक्ष से बाहर निकले। दरवाजे पर अष्टकमल निकला था। जो रश्मि एवं सुगंधि से युक्त था। मैं रुक गया। उस कमल से आवाज निकली, प्रभु मुझ पर पैर रखें। मैं धावक कमल हूं। मैं उस बड़े कमल दल पर एक-एक कर दोनों पैर रख दिया। अति कोमल, मुलायम था। वह कमल उस मणिजटित सड़क पर स्वतः निर्धारित दिशा में गतिमान हो गया। मेरे पीछे सभी उसी तरह के कमल पर गतिमान हो गए।

कुछ दूरी पर गाएं दिखाई पड़ी। जो श्वेत, रक्त, पीत, निलाम्बरादि रंगों की थी।मेरा ध्यान उधर गया। कमल उधर हा मुड़ गया। में गायों को नजदीक से देखा। जिनका धन दूध से भरा था। उनका चरन खाद्याखाद्यों से भरा था। सभी प्रसन्न था कुछ में सोग था। कुछ में नहीं अंदर से आवाज आई में कामधेनु हूँ आप हमारा स्वागत स्वीकार करिए।" देखते हो देखते एक गाय के धन के नीचे स्वर्ण पात्र चला गया। उस पात्र में दूध स्वतः गिरने लगा। उससे एक स्वर्ण - गिलास निकला। जो दूध से भरा था। मेरे सामने आकर रुक गया। आवाज आई, “मैं कामधेनु का अमृत दुग्ध हूं। आप इसे स्वीकार करें।" मैं ना नहीं कर सका। दूध पीते ही शरीर में दिव्य आत्म-ज्योति भर गई। मैं कामधेनु को नमस्कार किया

एवं धन्यवाद दिया।

कमल धावन गतिमान हो गया। एक जगह वृक्ष फलों से लदा था। उससे विभिन्न प्रकार का प्रकाश भी निकल रहा था। मेरी दृष्टि उधर गई। उसके भी नीचे शीतल वायु चल रही थी। मैं मंत्रमुग्ध खड़ा था। मैं तभी सोचा क्या अच्छा होता. इस पर पक्षी भी होते। देखते ही देखते पक्षी चहकने लगे। मैंने सोचा क्या अच्छा होता यहां वेद ध्वनि उच्चारित होता। तुरंत वेद ध्वनि उच्चारित होने लगी। मैं चौंककर पूछा, क्या आप कल्पतरु हो आवाज आई, हां स्वामीजी में कल्पतरु हूं। आप मेरा एक फल पा लें। उस वृक्ष से एक सुंदर पीतवर्ण फल गिरा एवं मेरे सामने एक तस्तरी में आ गया। मैं ऐसे कैसे पाऊं। यदि जल होता तब इसे धोता एक चाकू होता तब इसे शुद्ध करता। एक स्वर्ण पात्र में जल एवं चाकू भी उपस्थित हो गया। मैं उसका मीठा, अति स्वादिष्ट फल खाया। उसका शेष भाग अपने साथ आए यक्षों में बांट दिया। उन्हें भी नमस्कार किया एवं धन्यवाद दिया।????

क्रमशः.......