साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
जो भी साधक या भक्त गुरु की सेवा करता है, उस पर जाने-अनजाने लगातार सकारात्मक अणुओं की वर्षा होती रहती है। वह एक-न-एक दिन गुरु गोविंद को अवश्य उपलब्ध हो जाता है। उसमें विलंब हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं होगा। जो गुरु की निंदा करता है, उसके अणु नकारात्मक भाव उत्पन्न करते हैं। गुरु के नहीं चाहने पर भी गुरु के सकारात्मक अणु से टकराएगा एवं विद्युत की ऊर्जा उत्पन्न करेगा। जिससे शिष्य को जला देता है। अर्थात उसके सारे पुण्यों को समाप्त कर देता है। उसे अधोगामी बना देता है।
एक कहानी सुन रखा हूं। एक गुरु के तीन शिष्य थे। वे एक दिन प्रवचन में बोल रहे थे कि बैंगन का रूप रंग काला होता है। उसका स्वाद भी काला अर्थात बदसूरत होता है। स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है। एक शिष्य ने कहा गुरुदेव का वचन सत्य है। दूसरे ने कहा भ्रामक है। तीसरे ने कहा मूर्खतापूर्ण है।
कुछ दिनों के बाद गुरुदेव अपने प्रवचन में कहे की बैंगन अति स्वादिष्ट होता है। वह सब्जियों का राजा है। स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। प्रथम ने कहा सत्य वचन, गुरु का वाक्य ही ब्रह्म वाक्य है। मैं आप से पूर्ण सहमत हूं। दोनों जोर से हंस दिए। मूर्खता की भी सीमा होती है। दूसरे ने कहा कि मैं पहले कहा था की गुरुजी सदैव भ्रामक बातें बोलते हैं। तीसरे ने कहा गुरुजी गंवार है। वह सदैव मूर्खता पूर्ण बातें करते हैं। अतएव इन्हें सुनना ही मूर्खता है।
गुरुजी प्रथम शिष्य से पूछे-----क्यों बेटा! तुमने हमारा पहले दिन का प्रवचन नहीं सुना था। वह कहा गुरुदेव हर क्षण मैं आपको सुनता हूं। तब तुम आज समर्थन कैसे किया। क्या मेरी वाणी में विरोधाभास नजर नहीं आया। नहीं गुरुदेव! आप विरोधाभासी कैसे हो सकते हैं। मैं बैंगन का भक्त नहीं हूं। न कान, आंख, नाक, जीभ का भक्त हूं। मैं तो आपका भक्त हूं। आप जो कहेंगे, सत्य कहेंगे। कल्याणकारी कहेंगे। मैं पूर्णरूपेण आपसे सहमत हूं। आपको सुनता हूं। आपको देखता हूं। आपकी सेवा करता हूं। आपका ध्यान करता हूं। मैं आपका हूं। केवल आपका।
गुरुजी उठे एवं उस शिष्य को हृदय से लगा लिए। क्षण भर में उस शिष्य में गुरुत्व उतर आया। पूर्णत्व उतर आया।
गुरु के आंख से देखना है सन्यास है। अपनी आंख से देखना वासना है। गुरु के लिए जीना ही सन्यास है। अपने लिए जीना ही संसार है।
गुरु शिष्यों के मध्य इसलिए रहता है कि उसका प्रत्येक अणु मुक्त हो चुका है। ऊर्जा से परिपूर्ण है। उससे निसरित ऊर्जा को ग्रहण करने की क्षमता बनाने का नाम ही पात्रता है। शिष्य जब तक अपने मन से करता रहेगा, तब तक वह सांसारिक बंधनों से आबध्द रहेगा। जैसे ही अपने मन को भटका देता है; वह गुरु के ऊर्जा क्षेत्र में आ जाता है। उसके ऊर्जा से घिर जाता है। फिर उसे साकार गोविंद ही दिखाई देता है। उसका द्वैत गिर जाता है।
जिसे हम बनाते हैं----वही प्रकृति है। जिसे हम नहीं बनाते हैं----वही परमात्मा है। यदि गुरु की रचना हमारा मन ही करता है; वह हमारे अनुसार ही चलता है, हमारी हर जिद को पूरा करता है, तब वह गुरुत्व है। मायावी है। प्रकृति द्वारा आबध्द पुरुष है। गुरु हमारे अंदर की छिपी शक्ति को अपने शांति पाठ से उद्वेलित करता है। जिससे हमारे अंदर छिपी अनंत शक्ति विस्फोट करती है। इसी शक्ति के विस्फोटन क्रिया को शिक्षा कहते हैं। जिससे हमारा आध्यात्मिक एवं जागतिक विकास होता है।
जगत का विस्तार-प्रकृति का विस्तार है। यह प्रकृति भी परमात्मा का ही प्रतिरूप है। हमारा शरीर भी प्रकृति प्रदत है। शरीर के अंदर बैठा चेतन पुरुष है। परम पुरुष का ही हिस्सा समझकर भोग कर सकते हैं। परंतु भोग पदार्थों में आसक्ति ही दुख का मूल कारण है। जब मनुष्य स्वयं किसी वस्तु से पृथक हो जाता है तो सुख की अनुभूति होती है। चाहे हम कितनी ही वस्तुएं एकत्र करें, परंतु एक शक्ति है---मृत्यु, जो हमें इन पदार्थों से अलग कर देती है। इसलिए मृत्यु को मोक्ष या मुक्ति के सदृश्य माना गया है।
किसी का धन लेते ही उसका स्वत्व का अपहरण होने लगता है। फिर अशांति का जन्म होने लगता है। जिससे व्यक्ति बेचैन हो जाता है। अतएव हमें सभी में आत्म स्वरूप जानकर निष्काम कर्म करना चाहिए।"ईशा वास्यमिदं सर्वम्।"सब उसी का है। निर्लिप्त रहे तो सब कुछ हमारा है। लिप्त हुए तो कुछ भी हमारा नहीं है। जीवन की अंतिम घड़ी तक कर्मनिष्ठ रहे। गुरु आज्ञा का पालन करना ही आपका कर्तव्य है। कर्तव्य का पालन किए बिना हम अध्यात्म जगत में प्रवेश के अधिकारी नहीं बन सकते हैं। गुरुकृपा का परिणाम है---स्वयं का बोध होना। यही है---आत्मिक जीवन। आत्मा के प्रतिकूल कार्य करना ही पाप मूल कार्य है।
चिदात्मक पुरुष, प्रकृति के राज्य में आकर प्रकृति की ही सहयोगिता से प्रकृति से मुक्त होकर, चित्त स्वरूप में प्रवेश करते हैं। इसके दो रूप होते हैं। पहला---प्रकृति से अपने को मुक्त कर प्रकृति से अलग हो जाना। दूसरा प्रकृति को चिन्मय बनाकर अपना साथी बना लेना। अपने से अभिन्न कर लेना। प्रकृति माता है। इसलिए पुरुष की मुक्ति प्रकृति की ही कृपा से होती है। या गुरु अनुकंपा से। मुक्त होने पर पुरुष अलग हो जाते हैं। परंतु प्रकृति का आकर्षण उनके ऊपर रह जाता है। अतएव साधक उसी आकर्षण से कभी न कभी प्रकृति के राज्य में आने को बाध्य हो जाता है। यद्यपि वह ज्ञानी है। एक प्रकार से मुक्त भी है। फिर भी प्रकृति के राज्य में आना ही पड़ता है। परंतु उसका आना बद्ध के जीव की तरह नहीं है।
क्रमशः...