साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

गुरु शक्ति का स्वस्थान आपके कुटस्थ ब्रह्म के ऊपर है। शरीर छोड़ने पर यही शक्ति आत्मा को बरबस खींच कर स्वस्थान में ले जाती है।यह स्वस्थान सतलोक है। जहां गुरु शक्ति एवं परम पुरुष की शक्ति में तादात्म्य स्थापित हो जाता है।
सूक्ष्म आत्मा परमात्मा शक्ति तादात्म्य कर सालोक्य में स्थित हो जाता है। प्रत्येक लोक में स्वभाविक आकर्तन क्रिया चलती रहती है।जैसे पृथ्वी सूर्य का परिक्रमण करते है।यह परिक्रमण सहज भाव से निरंतर होता रहता है।जैसे मनुष्य जन्म के अनंतर क्रमशः बाल किशोर,यौवन,प्रौढ़,तथा वृद्धावस्था को प्राप्त करते है। उसी प्रकार इस परिक्रमण गति में भी निर्दिष्ट क्रम है।


                    जैसे योगियों को परीज्ञात है 'ज्योतिरभ्यंतरे रूपम्' । उसी प्रकार ज्योति का विकास पूर्ण होने पर उसको भेदकर रूप का आविर्भाव होता है। सत्यलोक में परम चैतन्य की ज्योति है। गुरु भक्त को जिस रूप की प्राप्ति होती है, वह वास्तव में गुरु रूप परमपिता का ही रूप है। जीवात्मा परम ज्योति से एकात्मकता स्थापित कर परमात्मा रूप प्राप्त करता है। यही सारूप्य मुक्ति है। आत्मा रूपी उपासक और उपास्य का व्यवधान हट जाता है। तब उपासक उपास्य का सामीप्य लाभ करता है। ज्योति उसके बाद रूप, उसके बाद शक्ति सानिध्य और सब के बाद मुक्तावस्था का उदय होता है। इसी का नाम है-सायुज्य। इस अवस्था में उपासक का उपास्य के साथ सर्वात्मना युक्त भाव होता हैं।
     आप सभी उस पूर्ण परमात्मा के यथास्वरूप है।अतएव आप सभी को मेरा प्रणाम।मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
                   जय ध्वनि होने लगी। महाकाल भैरव खड़े होकर धन्यवाद ज्ञापित करने हुए बोले-स्वामी जी के मुंह से हम लोग जिस पर सत्य को सुनने हैं, उससे हम अभिभूत हो गए। हमारी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं है। इनके सानिध्य में, इनकी मुखर वाणी सुनने के बाद मैं अपने को धन्य समझता हूं ।हम लोग भी उसी सर्वशक्तिमान से मिलकर मुक्ति की कामना करते हैं। अभी तो अपने पुण्यापुण्य के प्रभाव से हम लोग इस लोक में अवस्थित हैं। स्वामी जी से निवेदन है कि आप हमें इसी शरीर में रहकर उस परमपिता के सानिध्य का उपाय बताएं। हम लोग आपके निर्देशन को सहर्ष स्वीकार करेंगे। यह हम लोग जानते हैं कि मनुष्य शरीर ऐसा है जिससे व्यक्ति अधोगति में गिर सकता है या गुरु कृपा से पूर्णता को प्राप्त कर सकता हैं। यही कारण है कि पूर्णत्व का आगमन इसी शरीर में संभव है। परमात्मा का अवतरण भी मानव शरीर में ही होता है। आप पूर्णत्व को उपलब्ध है। हम लोग आपकी शरण में है। ऊपर से पुष्प की वर्षा होने लगी। सभी झुककर नमन करने लगे।
 ‌  मैं उनके सहस्रार में ब्रह्म तेज को डालकर सील कर दिया। ऐसा करते ही वे अपूर्व प्रकाश से भर गए। उनको शरीर रूपी पारदर्शी स्फटिक में सूर्य प्रवेश कर गया हैं। ऐसा तेज पूर्ण हो गया, सभी आनंद में हिलोरें लेने लगे।


          भैरव जी ने कहा- स्वामी जी! काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर हैं। ऐसा कह कर उठ खड़े हुए तथा अपने साथ चलने का निवेदन किए। मैं सहर्ष चल पड़ा। एक विशाल चट्टान के नजदीक पहुंच गए। देखते ही देखते चट्टान गायब हो गयी। अन्दर वहां एक 4-5 फुट का विवर दिखाई दिया। उसी में प्रवेश कर गए। मैं भी उन्हीं का अनुगमन किया। नीचे पहुंचने पर देखा तो देखता ही रह गया। वाणी मौन हो गई कभी अपने आंखों को मलता, कभी भैरव जी को देखता। जो प्रकाश पर ही प्रकाश स्वरूप खड़े हैं। मैं अपने को देखता हूं–तो भारहीन ज्ञात होता है। प्रकाश के बीच ऐसे प्रकाश का व्यक्ति खड़ा है। भैरव जी इंगित करते हैं। मैं उधर देखता हूं तो ऐसा ज्ञात होता है कि ॐ उल्टा खड़ा है। इसी तरह ओंकार बना है। बीच में शिवलिंग ऐसा ज्ञात होता है। अर्ध्द चंद्रकार इसके ऊपर वृहद् प्रकाश फैला है। ये वैश्वानर सदृश्य आकृति खड़ी है। मैं आंखें फाड़ कर देखे जा रहा था। मध्य में ज्योतिर्लिंग है। ठीक उसी के ऊपर की ज्योतिर्लिंग है। यही है सूक्ष्म काशी। भैरव जी ने कहा–हे स्वामी जी! यही भगवान शिव का त्रिशूल है। जिस पर काशी विराजमान है।


            _मैं श्रद्धा से झुक गया। सचमुच यह पृथ्वी से अलग एवं पावन है। यही कारण है कि वह बहुत संत काशी में मल–मूत्र नहीं करते। उनके दिव्य दृष्टि दिव्य काशी को देख लेती है। उनका अंतर्मन उसे अपवित्र करने से हट जाता है। _
भैरव जी ने कहा स्वामी जी! इसी के बराबर गंगा उस पार की धरती जिस पर आप विराजमान हैं। वह गौरी क्षेत्र है। वह भी इस तरह पावन है। वह मां का क्षेत्र है। बच्चा मां के गोद में मल –मूत्र त्याग देता है। मां उसे चुप साफ कर लेती है।
      वह क्षेत्र  मां गंगा की गोद है। जिसके गोद में शिशु निर्भीक रहता है। उसे भूख, प्यास, आश्रय या किसी भी चीज की चिंता नहीं रहती है। उसकी चिंता स्वयं मां ही करती है। अपने आंचल की छाया प्रदान करती है। अपने स्तन का दूधपान कराती है। अपनी गोद से शिशु को गर्मी प्रदान करती है। शिशु भी निश्चिंत होकर हाथ पैर चलाता हैं और मां को ही हाथ–पैर से मारता हैं। मां उल्टे प्रेम से अपने आंक में भर लेती है।

क्रमशः.....