साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्य में लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्य में लोक से

उत्तरायण

इसके ऊपर गुरु पर्वत है। जो छः दल कमल पर विराजमान है। यह अत्यंत प्रकाशमय  है। मैं वहां पहुंच गया। साष्टांग प्रणाम कर पूजा पूजा-अर्चना किया। गुरुदेव का यह शरीर पूर्ण प्रकाश का पारदर्शी नजर आने लगा। जैसे उनके मुंह से शब्द निकला की तुम जाओ परंतु शीघ्र चले आना। इसी शरीर से तुम्हें बहुत कार्य करना है। अतएव इसे छोड़ने के संबंध में तत्काल निर्णय मत लेना। छोड़ने के लिए उपयुक्त समय मैं देख रहा हूं। चूंकि जो इस मार्ग से बाहर निकलता है, वह इस पार्थिव शरीर के नश्वरता को समझ कर छोड़ देता है एवं आत्म शरीर या ब्रह्म शरीर में रहना उचित समझता है। जहां न कोई कष्ट है न ही किसी तरह का झंझट। अपनी तरह के विभिन्न शरीर वाले ऋषि-मुनि, अवतारी को देखकर प्रसन्न हो जाता है।फिर पार्थिव शरीर का भान भूल कर उन्हीं लोगों के साथ हो जाता है।

यह याद रखना होगा। सारे झंझट का स्रोत एवं कर्म-बंधन का जड़ यही शरीर है। कर्म-बंधनों को तोड़ने तथा दूसरे का हित करने का साधन भी इसी शरीर से संभव है। हजारों-लाखों जीव जन्मो-जन्म से भटक गए हैं। तुम्हें उनका उद्धार करना ही है। वे तो बेचारे अपने 'तम'  के अंधकार से घिरे हैं। तुम्हें उन्हें आलोकित करना ही होगा। तुम्हारे साथ मैं सदैव हूं। तुम्हारी मदद में सीता, उर्मिला, मीरा, राधा, हनुमान इत्यादि देवकन्याएं एवं देवगण चले गए हैं। सभी किसी न किसी रूप में तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। तुम्हें अपने ब्रह्मार्षियो को बनाना होगा। दिशा-निर्देश करना होगा। इस बार राम एक व्यक्ति न होकर संस्था होगी। वह तुम सदविप्र समाज सेवा की स्थापना कर ही चुके हो। जितना बड़ा कार्य उतना ही बड़ा संघर्ष होता है। धैर्य से काम लेना है।सभी कुछ समय से पूर्ण होगा शंखनाद करना तुम्हारा कर्तव्य है। धर्म-अधर्म का युद्ध लंबा चलता है। जो तुम्हारे साथ खड़ा होगा वही धार्मिक है। जो सुविधाभोगी होगा। वह अन्याय के साथ खड़ा होगा, वही अधार्मिक है।

तुम बने-बनाए मार्ग पर नहीं चल रहे हो। मार्ग तुम्हें ही बनाना है। उस पर तुम्हारे ही सदविप्र चलेंगे। कालांतर में वही राजपथ बन जाएगा। तुम इतिहास का निर्माण कर रहे हो। इतिहास को दुहरा देना कोई कला नहीं है। इतिहास का निर्माण करना ही कला है। जो अति कठिन है। उसका भविष्य अज्ञात के गर्भ में है। एक कदम भी आगे नहीं दिखाई पड़ता है। प्रत्येक कदम अपने संभल कर रखना है। बिहड़ जंगल के उबड़-खाबड़ मार्ग को अपने ही पदचाप से प्रशस्त कर राजपथ बनाना है। यह कहना आसान है। करना दुरूह है। सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में है। तुम चिंगारी पैदा करो। कोई ना कोई चिंगारी तो आग लगाने में सफल हो ही जाएगी। बस जंगल में आग फैलते देर नहीं लगती है। जंगल तो स्वयं आग का विस्तार कर लेता है। पवन देवता शीघ्र संपन्न करने में मदद करता है।

मैंने श्रद्धा-प्रेम से साष्टांग प्रणाम किया। गुरुदेव मेरे मस्तक पर हाथ रख दिए। अब मैं उठ कर देखता हूं कि गुरुदेव का शरीर प्रकाशमय है। ऐसा प्रकाश-आलोक कि वह द्वार प्रतीत होता है। जिसमें बरबस प्रवेश की भावना प्रबल बनती है। आत्मिक शरीर ब्रह्म शरीर का रूप धारण कर ली। मैं उसमें सहर्ष प्रवेश कर गया।

यहां अनंत मनोहर, सुरम्य प्रकाश है। कमल दल गिनना  बचकाना प्रतीत होता था। जैसे किसी वृक्ष के नजदीक जाकर फल का स्वाद ना लेकर वृक्ष पर फलों को गिना जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि हजारों कमल दल है। सभी एक साथ प्रकाशित है। पूर्ण चेतना है। समग्रता है। बूंद समुद्र में मिलकर समुद्र बन जाती है। मेरी इच्छा यही हो रही थी। तभी पीछे से आवाज आई, सामने के द्वार से बाहर निकल जाओ। यही ब्रह्मरंध्र है। योगी-यति का अंतिम द्वार। इसे ही दशम द्वार कहा गया है। जो एक बार इस द्वार से बाहर निकल जाता है। उसके लिए सारे रहस्य खुल जाते हैं। वह स्वेच्छा से शरीर छोड़ सकता है। अपने गंतव्य स्थल की यात्रा मानसिक गति से कर सकता है। उस संत पर प्रकृति का वश नहीं होता है। प्रकृति उसकी इच्छा मात्र से संचालित होती है। परंतु उसकी अपनी इच्छा भी नहीं होती है। वह पूर्व संकल्पित कार्यों को निष्काम भाव से करता है। इस शरीर में रहते हुए भी शरीर गत फलाफल भोगता है। सामान्य जन सा सांसारिक कार्य करता है। जबकि उसके इशारे मात्र से देवगण इसकी सेवा में प्रस्तुत हो सकते हैं। वह इन सबसे परे ब्रह्मलीन रहता है। अपने में मस्त रहता है। शिष्य-साधक देवता इनकी सेवा कर अपनी शारीरिक, आर्थिक, आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। परमात्मा सर्वसाधारण को इन के माध्यम से अपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करता है।

मैं अपने अस्तित्व को अलग ही बचा कर रखा तथा बाएं मुड़ कर सीधे रास्ते से निकल गया। यह मार्ग हर्ष दायक एवं कौतूहलपूर्ण है। मार्ग महल से भी ज्यादा आनंदपूर्ण था। कभी-कभी यात्री रास्ते के सुखानुभूति से भी अपने गंतव्य एवं कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। वह चिरविश्राम करने लगते हैं, अधिकांश व्यक्तियों के साथ यही होता है। वे मार्ग में ही अपना महल निर्मित करने लगते हैं। मार्ग के परिचित ही उसके अपने हो जाते हैं। वह उनके सुख-दुख में इतनी बुरी तरह आबद्ध
 हो जाता है कि अपने कर्तव्य चेतना का भान ही भूल जाता है। फिर यहां से विदा हो जाता है। मैं निरंतर आगे बढ़ता गया।