वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत आदिवासियों को प्राप्त अधिकारों को खत्म कर रही है मोदी सरकार
छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि हाल ही में मोदी सरकार द्वारा पारित अध्यादेश में वन भूमि को किसी अन्य उपयोग के लिए इस्तेमाल के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए कांग्रेस के मनमोहन सिंह सरकार द्वारा पारित वन अधिकार अधिनियम-2006 के उद्देश्य और अर्थ को ही खंडित कर दिया है। केंद्र सरकार के नए प्रावधान के तहत एक बार वन मंजूरी दे देने के बाद बाकी सभी चीजें महज औपचारिकता रह जाएंगी और यह लगभग तय है कि आदिवासियों के किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा व उनका समाधान नहीं होगा।
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेन्द्र वर्मा ने कहा कि एक तरफ जहां छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार ने पांचवी अनुसूची के क्षेत्र बस्तर और सरगुजा में स्थानीय आदिवासियों को अधिकार संपन्न बनाने पेसा कानून के नियम को लागू किया हैं, राज्य में 4 लाख 54 हजार से अधिक व्यक्तिगत वनाधिकार पत्र, 45,847 सामुदायिक वन तथा 3731 ग्रामसभाओं को सामुदायिक वन संसाधन अधिकार पत्र वितरित कर 96 लाख एकड़ से अधिक की भूमि आवंटित की गई है, जो 5 लाख से अधिक वनवासियों के जीवन-यापन का आधार बनी है। 6 से बढ़ाकर 65 वनोपजों की खरीदी की जा रही है, न केवल वनोपजों के दाम बढ़े हैं बल्कि वहीं प्रोसेसिंग और वैल्यू एडिशन का लाभ भी स्थानीय आदिवासी महिला समूहों को मिल रहा है, दूसरी ओर केंद्र की मोदी सरकार चंद पूंजीपति मित्रों को लाभ पहुंचाने व्यापार सुगमता के नाम पर जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के अधिकार को खत्म कर रही है। मोदी सरकार का यह फैसला करोड़ों आदिवासियों और वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को शक्तिविहीन बनाएगा। मोदी सरकार आदिवासियों और वनवासियों की सहमति के बिना जंगलों को काटने की मंजूरी दे रही है। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे वन अधिकार अधिनियम, 2006 के रूप में जाना जाता है, एक ऐतिहासिक कानून है जिसे यूपीए सरकार में संसद द्वारा व्यापक बहस और चर्चा के बाद सर्वसम्मति से आदिवासी हित में पारित किया गया है। यह देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी, दलित और अन्य परिवारों को, व्यक्तिगत और समुदाय दोनों को भूमि और आजीविका के अधिकार प्रदान करता है। यूपीए सरकार ने अगस्त 2009 में, इस कानून के पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए, तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने निर्धारित किया कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत वन भूमि के अन्य किसी इस्तेमाल के लिए किसी भी मंजूरी पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के पहले उनका निपटारा नहीं कर दिया जाता है। लेकिन विगत 7 वर्षों में लगातार इस प्रकार से श्रम कानूनों सहित आम जनता के अधिकारों को प्रभावित करने वाले तमाम कानून अधिनायकवादी तरीके से बिना चर्चा, बिना बहस के देश पर जबरिया थोप रहे हैं। अधिनायकवादी मोदी सरकार इतने बड़े फैसले लेने से पहले ना प्रभावितों से चर्चा करना जरूरी समझती है, ना विशेषज्ञों की राय ली जाती है, न संसद की कमेटी के पास भेजा जाता है और ना ही उन्हें सदन के भीतर चर्चा मंजूर है। प्रमाणित है कि मोदी सरकार का फोकस केवल चंद पूंजीपति मित्रों के मुनाफे पर केंद्रित है।