साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

सद्गुरु जलता हुआ अंगारा है। उसके नजदीक पहुंचते ही गर्मी आती है। उसे सहन करना कठिन है। वह अपने पैर से चलता है। उसके साथ पीछे का कोई गुडविल नहीं है। वह आपकी भी बैसाखी छीन लेना चाहता है। आपके मुर्दे हृदय में हलचल मचाना चाहता है। अपनी अग्नि से आपमें अग्नि पैदा करना चाहता है। जिससे आपमें अज्ञात भय प्रवेश कर जाते हैं। आप उसकी निंदा करने लगते हैं।

कृष्ण को मात्र गोपियां ही पहचानी, जिसकी प्रमुख बनी राधा रानी । भीष्म पहचाने परंतु मोहवश विपक्ष में ही लड़ते रहे। विदुर पहचाने तो उन्हें प्रचारित करना चाहिए। परंतु वे भागकर जंगल चले गए। कुन्ती और द्रौपदी पहचानीं परंतु वे भी उन्हें सांसारिक राज्य ग्रहण करने में लगाए रहीं। अर्जुन के लिए अठारह अध्याय गीता कह दिए। फिर भी वह पूर्ण समर्पण नहीं कर सका। धर्मराज युद्ध के बाद कृष्ण को अनाप-शनाप शब्दों का प्रयोग किए। कुल खानदान का हत्यारा कहे। जिसे कृष्ण नहीं समझ पाए। सभी पुरोहित, धर्म गुरु, पंडित, विद्वान की बातों को समझने के आदी हैं। अक्सर रोगी बड़े-बड़े डॉक्टरों की बात नहीं समझ पाते हैं। उनके कम्पाउंडर उन्हें समझा देते हैं। वैसे ही भगवान के कम्पाउंडर भीष्म पितामह धर्मराज को मरण शय्या पर समझा दिए। कृष्ण को तपस्वी भी नहीं समझ पाए। चूंकि बड़ा तपस्वी अपने तप एवं सिद्धियों के अहंकार में होते हैं। तपस्या को भगवत्ता से दूर-दूर तक संबंध नहीं है। दुर्वाषा जैसे ऋषि भी उन्हें नहीं समझ सके। दुर्भाग्य तब होता है, जब उनके घर-परिवार के लोग भी उपेक्षा कर देते हैं। चूंकि सद्गुरु अपना अनमोल खजाना देना चाहता है। सगा संबंधी सभी उससे संसार पाना चाहता है।

राम को भी समय के ऋषि वशिष्ठ, कामदेव, गौतम, दुर्वाषा इत्यादि ऋषिगण नहीं पहचाने। एक हनुमान पहचाना एवं अपने को पूर्ण रूपेण समर्पित कर दिया। भरत पहचाने एवं राम राज्य लागू कर दिए।

पश्चिम में देखें तो ईसा को भी कोई नहीं पहचाना। जो पहचाना वह भी उन्हें दो सौ में बेच दिए। उन्हें सूली पर चढ़ाया गया। अब आधी पृथ्वी ईसाई हो गई है।

पादरी की बातें सभी समझ सकते हैं। मूसा को कोई नहीं पहचाना, उन्हें जिन्दा जला दिया गया। कबीर साहब को भी कोई नहीं पहचाना। उन्हें ही कहना पड़ा- "जो मिला सो गुरु मिला, शिष्य मिला नहीं कोय।"

उनके जाने के बाद कितने कबीरपंथी हो गए। उनके नाम पर कितने ग्रंथ

लिख दिए गए। यह सब तो मात्र छः सौ वर्ष की बात है।

नानक साहब को कोई नहीं पहचाना। बाला मरदाना साथ रह

ते हैं वे भी नौकर ही थे। बढ़ई लालोभाई पहचाना तो वह मित्रवत था। उनका शिष्यत्व कौन ग्रहण किया? मात्र अंगददेव ही पहचान सके। अब उनके नाम पर देखिए ग्रंथी लोग जगह-जगह व्याख्या कर रहे हैं।

यही विचित्र विडम्बना है-द्रोणाचार्यजी! मेरी भी बात कोई नहीं सुन रहा है। घर-परिवार या बाहर के लोग। जो सुन रहे हैं वे अपनी ही शर्तों पर। जिस दिन मेरी शर्तों पर कोई सुनने वाला मिल जाएगा। उसी दिन मैं अपने को धन्य समझूंगा। हमारी भ्रान्त धारणाएं, पूर्वाग्रह, लोकजनित प्रतिष्ठा, कुल, खानदानगत प्रतिष्ठा

हमें समय के सद्गुरु के सामने नतमस्तक नहीं होने देता। किसी न किसी तरह हमारा अहंकार आड़े आता है। दीवार बनकर खड़ा हो जाता है। साथ ही कुलगुरु, पुरोहित वर्ग, विद्या व्यसनी सत्य का शत्रु कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आप इन्हीं लोगों से घिरे थे। सदैव लोग इन्हीं से घिरे रहते हैं। इनका चक्रव्यूह छेदन करना साधारण अभिमन्यु का काम नहीं है। वह बेचारा प्रवेश द्वार पर ही मारा जाएगा। इसमें बहुत बड़ा पौरुष है। जिसका जन्मों-जन्म का प्रारब्ध इकट्ठा होता है। वही महाबली सारे बन्धनों को लात मारकर उन्हें पकड़ ले जाते। वही महावीर हैं।

उच्च वर्ग के लोग सदा से स्वार्थी होते हैं। वे सत्ता के साथ रहना जानते हैं। सत्ता का सुख त्यागना उनके लिए अत्यंत दुरूह है। समय के सद्गुरु का सभी गीता सुनते हैं। सुनते हुए भी अनसुना कर देते हैं। चूंकि उसमें कोई पुरातनता नहीं होती है। किसी पूर्व से समर्थ नहीं जुटाया गया है। इसलिए यह गीत उन्हें व्यर्थ लगता है। वे जो तोता के तरह रट लिये हैं, वही सुनना चाहते हैं। जो बीत गया, उसी का दिवास्वप्न देखने के आदी हैं। समय के सद्गुरु के साथ हर क्षण चमत्कार करते रहते हैं। परंतु लोग इसे संयोग या जादूगरी समझ लेते हैं। अपने कुतर्कों का सहारा लेते हैं। अक्सर चूक जाते हैं। जहां श्रद्धा होनी चाहिए वहीं हम संदेह करते हैं। जहां संदेह होना चाहिए हम श्रद्धा करते हैं। फिर हमें कोई कालनेमि डस लेता है।

शास्त्री वेदांती सदैव से प्रियकर लगता है। चूंकि उसके पास कुछ नहीं होता है। किसी समय वह सद्गुरु की राख पोटली में बांधकर घूमता है। उसकी महिमा गाकर उसकी टीका लगाता है। वह आपके मन की आशाओं को पूर्ण होने का आश्वासन देता है। आपको भी अपने मन से उचित प्रतीत होता है। हम जन्मों- जन्म से मन की ही सुनते आ रहे हैं। मन ही संसार में फंसाता है। मन को सुनना ही संसार है। मन को सुनने से इनकार करना ही संन्यास है। इसे इनकार करना बहुत कठिन है। परम्परा के पीछे भागना ही संसार है। मन संसार में बुरी तरह आबद्ध है। उसे पाने का ही हर समय प्रयास करता है। वही उसे सत्य प्रतीत होता है। परंपरा को इंकार करके सद्गुरु के साथ खड़ा होने का नाम ही संन्यास है। अत्यंत कठिन है। आपके साथ भी यही घटित हुआ।

अब सुबह होने को है। आप अगली पूर्णिमा को हमारे गंगा किनारे के आश्रम पर आ जाएं। हम लोग आगे का रास्ता तय करेंगे। यदि हो सका तो आपको दिव्य काशी का दर्शन कराऊंगा। अपने अंदर के काशी में प्रवेश करते ही, उस काशी का भी द्वार खुल जाता है। वहां के भगवान भी स्वागत किए। 
 
क्रमशः.....